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१७६ / जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका स्वभाव (मूलकर्म प्रकृति) के अनुसार ही, अन्य कर्म के स्वभावानुसार नहीं । इस सम्बन्ध में भगवतीसूत्र में वर्णित भगवान् महावीर और कालोदायी परिव्राजक का संवाद द्रष्टव्य है।
एकदा राजगृही में गुणशीलक चैत्य में विराजमान श्रमण भगवान् महावीर से कालोदायी अनगार ने पूछा
भगवन् ! जीवों के द्वारा किये हुए पापकर्म उन्हें पापफल-विपाक से युक्त करते हैं ?
भगवान् -हाँ, करते हैं। ___कालोटायो-भगवन् ! जीवों के पापकर्म उन्हें पापफल से संयुक्त कैसे करते हैं ?
भगवान्कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ, स्थालीपाकशुद्ध (परिपक्व) अठारह प्रकार के व्यंजनों से युक्त अति सुन्दर भोजन विष मिश्रित करके खाता है। वह भोजन उसे आपातभद्र (खाते समय अच्छा) लगता है, किन्तु बाद में ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है, त्यों-त्यों वह दुरूप (विकृत) और दुर्गन्धरूप को पाकर शरीर के सब अवयवों को बिगाड़ता हुआ महाशव (मृतक) की तरह मृत कर देता है । (वह परिणामभद्र नहीं होता) इसी प्रकार हे कालोदायी ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य (अठारह प्रकार के पापकर्म) आपात भद्र होते हैं, किन्तु बाद में वह परिणमन करता हुआ दुरूप, दुर्गन्ध से युक्त होकर जीवों को सब प्रकार से दुःखित (शारीरिक-मानसिक दुःखों से पीड़ित) करते हैं। हे कालोदायी ! इसी प्रकार जीवों के द्वारा कृत पाप-कर्म उन्हें पापफलविपाक से युक्त करते हैं।'
फिर कालोदायी ने भगवान् महावीर से पूछा-भगवन् ! जीवों के द्वारा कृत कल्याण कर्म क्या उन्हें कल्याण-फल-विपाक से युक्त करते हैं ?
भगवान्–हाँ, कालोदायी करते हैं।
कालोदायी-भगवन् ! कल्याणकर्म जीवों को कैसे कल्याणफल से युक्त कर देते हैं ?
भगवान्–कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ, स्थालीपाक-शुद्ध (पवित्र एवं परिपक्व), अठारह व्यंजनों से युक्त भोजन औषधमिश्रित करके खाता है। उसे वह भोजन आपातभद्र (प्रारम्भ में अच्छा) नहीं लगता; १ भगवतीसूत्र शतक ७, उद्देशक १०, सू० २२२