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६.
नामक
कर्मवाद : एक मीमांसा | १७५ आठ कर्मों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति इस प्रकार हैक्रम कर्म जघन्यस्थिति उत्कृष्टस्थिति १. ज्ञानावरणीय अन्तमुहूर्त ३० कोटाकोटि सागरोपम
दर्शनावरणीय , , ३० कोटाकोटि सागरोपम वेदनीयकर्म १२ मुहूर्त ३० कोटाकोटि सागरोपम मोहनीयकर्म अन्तमुहूर्त । ७० कोटाकोटि सागरोपम आयुष्यकर्म
३३ सागरोपम नामकर्म आठ मुहूर्त २० कोटाकोटि सागरोपम गोत्रकर्म
२० कोटाकोटि सागरापम अन्तरायकर्म अन्तमुहर्त ३० कोटाकोटि सागरोपम कर्मों का फलविपाक - कर्म अचेतन हैं, वे जीव को नियमित फल कैसे दे सकते हैं ? इसी प्रश्न के आधार ईश्वरकर्तृत्ववादियों ने ईश्वर को कर्मफल का नियन्ता बताया; परन्तु जैनदर्शन कर्मफल का नियंता ईश्वर को नहीं मानता, उसका कारण हम पहले बता चुके हैं। जीवात्मा के सम्बन्ध से कर्मपरमाणुओं में एक विशिष्ट परिणाम होता है, जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, गति, स्थिति, पुद्गलपरिणाम आदि उदयानुकुल सामग्री से विपाक प्रदान में समर्थ होकर जीवात्मा के संस्कारों को विकृत करता है। उससे उनका फलोपभोग होता है।
सच्चे माने में तो आत्मा अपने किये का फल अपने आप भोगता है। कर्मपरमाण उसमें सहकारी बन जाते हैं। जब आत्मप्रदेशों के साथ कार्मणवर्गणाओं का सम्बन्ध होता है, तब आत्मा का जैसा भी तीवमन्दादि या शुभाशुभ अध्यवसाय (रस या अनुभाग) होता है, तदनुसार उनमें शुभ-अशुभ तीव्रतम-तीव्रतर-तीब्र, मध्यम, मन्द-मन्दतर, या मन्दतम फल देने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है । उसे ही अनुभाव या अनुभाग कहते हैं।
___ जैसे- विष और अमृत, अपथ्य और पथ्य भोजन को कुछ भी ज्ञान नहीं होता, फिर भी आत्मा का संयोग पाकर उनकी वैसी परिणति हो जाती है। उनका परिपाक होते ही सेवन करने वाले को इष्ट या अनिष्ट फल की प्राप्ति हो जातो है । फल देने का यह सामर्थ्य ही विपाक या अनुभाव है। उसका निर्माण ही अनुभाव (अनुभाग या रस) बन्ध है। अनुभाव (विपाक) समय आने पर ही फल देता है। परन्तु वह फल देता है, उस-उस कर्म के १ विपाकोऽनुभावः ।' 'स यथानाम ।' -तत्त्वार्थ० अ० ८, सू०२४-२५