________________
१७४ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका में दुःख उत्पन्न करता है, इससे संसारी जीव के राग-द्वष का होना स्वाभाविक है और राग-द्वष मोहनीयकर्म के कारण हैं। इसलिए वेदनीयकर्म के बाद मोहनीय कर्म का क्रम रखा गया।
मोहनीयकर्म से मूढ़ हुए प्राणी महारम्भ-महापरिग्रह आदि में आसक्त होकर नरकादि गतियों की आयु बाँधते हैं। अतः मोहनीकर्म के बाद आयुष्यकर्म का कथन किया गया है।
नरकादि आयुकर्म का उदय होने पर अवश्य ही नरकगति आदि नामकर्म की प्रकृतियों का उदय होता है। अतः आयुकर्म के बाद नामकर्म रखा गया है।
नामकर्म का उदय होने पर जीव उच्च या नीच गोत्र में से किसी एक गोत्र कर्म का अवश्य ही भोग करता है। इसलिए नामकर्म के बाद गोत्रकर्म का कथन किया गया है।
गोत्रकर्म का उदय होने पर उच्चकुलोत्पन्न जीव के दान, लाभ आदि से सम्बन्धित अन्तराय कर्म का क्षयोपशम होता है, एवं नीचकुलोत्पन्न जीव के इन सबका उदय होता है। इसलिए गोत्रकर्म के बाद अन्तरायकर्म को स्थान दिया गया। आठ कर्मों को उत्तरप्रकृतियाँ
आठ कर्मों की उत्तरप्रकृतियाँ १४८ या १५८ होती हैं । वे इस प्रकार हैं-(१) ज्ञानावरणीयकर्म की ५, (२) दर्शनावरणीय कर्म की ६, (३) वेदनीयकर्म की २, (४) मोहनीयकर्म की २८, (५) आयुष्यकर्म की ४, (६) नामकर्म की ६३ अथवा १०३, (७) गोत्रकर्म की २, और (८) अन्तरायकर्म की ५। इनका विशेष विवेचन कर्मग्रन्थ आदि ग्रन्थों से समझ लेना चाहिए। वहाँ इनके विषय में गहन विचार किया गया है।' कर्मों की स्थिति
__ आत्मप्रदेशों के साथ जब कार्मणवर्गणाओं का सम्बन्ध होता है, तब तत्क्षण कर्म की स्थिति (कालमर्यादा) का निर्माण हो जाता है। वह स्थिति जीवों के परिणामों की तीव्रता-मन्दता की तरतमता के अनुसार अनेक प्रकार की होती है, किन्तु नाना जीवापेक्षा शास्त्रों में कर्मों की स्थिति दो प्रकार की बताई गई है-जघन्य (लघुतम) और उत्कृष्ट (अधिकतम) स्थिति ।' १ (क) प्रज्ञापना पद २३।२, (ख) कर्मग्रन्थ भा० १ २ (क) उत्तराध्ययनसूत्र, अ० ३३, गा० १६ से २३
(ख) तत्त्वार्थ० अ० ८ सू० १५ से २१ तक