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कर्मवाद : एक मीमांसा | १७३ (१) दानान्तराय-(दान देने में विघ्न डालने) (२) लाभान्तराय (किसी को लाभ मिलता हो. उसमें विघ्न उपस्थित करने) से, (३) भोगान्तराय (भोग्य वस्तु को भोगने में विघ्न डालने) से, (४) उपभोगान्तराय (बार-बार भोगने योग्य वस्तु के उपभोग में अन्तराय डालने) से, और (५) वीर्यान्तराय (किसी के शुभकार्य विषयक पुरुषार्थ में विघ्न उपस्थित करने) से ।
पूर्वोक्त दानादि पांच प्रकार के कार्यों में विघ्न उपस्थित करके सत्कार्य न होने देने से जीव अन्तराय कर्म बांध लेता है, जिसे दो प्रकार से भोगा जाता है—एक तो जो प्रिय पदार्थ अपने पास हो, उनका वियोग हो जाना, दूसरे-जिन पदार्थों की प्राप्ति की आशा हो, उनकी प्राप्ति न होना। ये दो बातें हों तो समझ लेना चाहिए कि अन्तरायकर्म उदय में आ रहा है।
इन आठों कर्मप्रकृतियों के बन्ध के विभिन्न कारणों को समझ लेने पर कर्मवादी कर्मबन्ध के कारणों से दूर रहने का प्रयत्न करता है। 'आठ कर्मों के क्रम का रहस्य
- ज्ञान और दर्शन के बिना जीव का अस्तित्व हो नहीं रह सकता, क्योंकि जीव का लक्षण उपयोग (ज्ञान-दर्शनमय) है। ज्ञान और दर्शन में भी ज्ञान प्रधान है। ज्ञान से ही शास्त्रादि विषयक समग्र प्रवृत्ति होती है, लब्धियाँ भी ज्ञानोपयोग वाले को ही प्राप्त हो सकती है, मुक्त होते समय भी जीव ज्ञानोपयोग वाला होता है। अतः ज्ञान की प्रधानता होने से सर्वप्रथम ज्ञान का आवरक --ज्ञानावरणीय कम रखा गया। तत्पश्चात् रखा गया दर्शन का आवरक–दर्शनावरणीयकर्म । ये दोनों कर्म अपना फल देते हुए यथायोग्य सुख-दुःखरूप वेदनीयकर्म में निमित्त होते हैं। जैसेगाढ़ ज्ञानावरणीय कर्म को भोगता हुआ जोव सूक्ष्म वस्तुओं का ज्ञान करने में स्वयं को असमर्थ पाकर खिन्न होता है, जबकि ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशय की प्रबलता वाला जीव अपनी बुद्धि से सूक्ष्म-सूक्ष्मतर वस्तुओं का ज्ञान करके हर्षानुभव करता है। इसी प्रकार प्रगाढ़ दर्शनावरणीय कर्म का उदय होने पर जीव जन्मान्ध होकर दुःख भोगता है, तथा उक्त कर्म के क्षयोपशम की प्रबलता होने पर जीव निर्मल स्वस्थ चक्षुओं तथा अन्य इन्द्रियों से वस्तुओं को यथार्थरूप में देखता हुआ हर्षानुभव करता है, इसलिए ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्म के पश्चात् वेदनीय कर्म कहा गया है।
वेदनीय इष्टवस्तुओं के संयोग में सुख तथा अनिष्टवस्तुओं के संयोग