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________________ १७२ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका (छलकपटयुक्त भाषा न बोलने) से, और (४) अविसंवादनयोग (मन-वचनकाया के योगों में एकरूपता-अवक्रता धारणा करने) से । तात्पर्य यह है कि मन, वचन, काया को सरलता धारण करने से आत्मा शुभनामकर्म का उपार्जन कर लेता है, जिसके प्रभाव से शरीरादि की सुन्दरता, अंगसौष्ठव आदि के अतिरिक्त यशोकीति आदि की प्राप्ति होती है। अशुभनामकर्मबन्ध के कारण-अशुभनामकर्म के बन्ध के चार कारण हैं । यथा-(१) काया की वक्रता से, (२) भावों की वक्रता से (३) भाषा की वक्रता से और (४) योगों के विसंवादन (अनेकरूपत्व) से अशुभनाम-कर्म का बन्ध होता है। तात्पर्य यह है कि शुभनाम कर्मबन्ध के जो कारण हैं, उनसे विवरीत कारण अशुभनामकर्म के हैं । इसके फलस्वरूप जीव को कुरूप शरीर, अपयश आदि की प्राप्ति होती है। उच्चगोत्रकर्म-बन्ध के कारण-सामान्यतया उच्चगोत्रकर्म का उपार्जन तभी होता है, जब जीव किसी भी पदार्थ (ज्ञान, तप, सुख-साधन, ऐश्वर्य, जाति, कुल आदि) मिलने पर मद-गर्व न करे। विशेषतया उच्चगोत्रकर्म (कार्मणशरीर) का बन्ध ८ कारणों से होता है यथा--(१) जातिमद न करने से, (२) कुलमद न करने से, (३) बलमद न करने से, (४) रूपमद न करने से, (५) तपोमद न करने से, (६) श्रुत (शास्त्रज्ञान का) मद न करने से, (७) लाभ का मद न करने, और (८) ऐश्वर्यमद न करने से। नीचगोत्रकर्म -बन्ध के कारण-जिन कारणों से उच्चगोत्रकर्म का बन्ध होता है, ठीक उनके विपरीत कारणों से नीच गोत्रकर्म का बन्ध माना गया है । अर्थात्-नीच गोत्रकर्म-बन्ध के भी ८ कारण हैं यथा-(१) जातिमद करने से, (२) कूलमद करने से, (३) बलमद करने से, (४) रूपमद करने से, (५) तपोमद करने से, (६) श्रुतमद करने से, (७) लाभमद करने से और (८) ऐश्वर्यमद करने से। इस सूत्रपाठ का फलितार्थ यह है कि जिस पदार्थ का मद किया जाता है, वही पदार्थ उस जीव को मिलना दुर्लभ है। __अन्तरायकर्म बन्ध के कारण—जिस कर्म उदय से इच्छित वस्तु की प्राप्ति न हो सके तथा मन में विचार किया हुआ कार्य पूरा न हो सके उसमें विघ्न उपस्थित हो जाए, उसका नाम अन्तरायकर्म है । अन्तरायकर्मबन्ध के पाँच कारण हैं
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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