SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 495
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मवाद : एक मीमांसा | १७१ नरक के कार्मण शरीर को उपार्जित करता है । अर्थात् - इन चार कारणों से जोव को मरकर नरक में उत्पन्न होना पड़ता है । ' तिर्यञ्चायुण्यकर्मबन्ध के कारण - जिन-जिन कुकृत्यों से जोव तिर्यञ्चाय कर्म को बांधता है, वे नाना प्रकार की छल, दम्भ, कपट आदि क्रियाएँ हैं । यथा – (१) परवंचन ( ठगने) की बुद्धि से, वंचन (धोखा देने) चेष्टाओं से, (२) माया को छिपाने से -कपट क्रिया करने से, (३) झूठ बोलने से, (४) झूठा तौल नाप करने से, जीव को तिर्यञ्चयोनिक - आयुष्यकार्मणशरीर का बन्ध होता है । मनुष्याकर्मबन्ध के कारण — जिनके कारण जीव मनुष्यगति में मनुष्य बनकर जीता है, उस मनुष्यायु-कर्म-बन्ध के चार कारण हैं - ( १ ) प्रकृतिभद्रता ( सरल स्वभाव) से, (२) प्रकृति की विनीतता से ( विनीत स्वभाव वाला होने से ), (३) दयावान होने से और (४) मत्सर - ईर्ष्याभाव न रखने से । देवायुष्यकबन्ध के कारण - जिन कारणों से जीव देवायु का बन्ध करता है, वे चार कारण हैं - ( १ ) रागपूर्वक साधुधर्म के पालन से (२) गृहस्थधर्म के पालन से, (३) अकामनिर्जरा से तथा ( ४ ) बालतपं ( अज्ञानपूर्वक काय - क्लेशादि - तप) करने से । इन चार कारणों से जीव देवता का आयुष्यकर्म बांधता है। शुभनामकर्मबन्ध के कारण - नामकर्म के दो प्रकार हैं- शुभनामकर्म और अशुभनामकर्म | शुभनामकर्म का बन्ध चार कारणों से होता है- (१) काया की ऋजुता (शरीर द्वारा किसी के साथ छल न करने) से, (२) भाव की ऋजुता (मन में छलपकट का भाव न रखने) से, (३) भाषा की ऋजुता १ नेरयाउय कम्मासरीरप्पयोग बंधे णं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! महारंभयाए महापरिग्गहयाए कुणिमाहारेणं पंचेदियवहेणं नेरइयाउयकम्मासरी रपयोग नामाए कम्मस्स उदएणं नेरइया उय कम्मसरीर जावापयोग बंधे । तिरिक्खजोणियाउय कम्मासरीरप्पयोग पुच्छा ? गोयमा ? माइल्लियाए, नियडिल्लयाए, अलियवयणेणं, कूडतुलकूडमाणेणं तिरिक्खजोणियाउय कम्मासरीर जावप्पयोगबंध | - भगवती सूत्र श०८, उ०६ २ ३ मणुस्स आउयकम्मासरीर पुच्छा ? गोमा ! पगइभद्दया, पगइ विणीययाए, साणुक्कोसयाए, अमच्छरियाए मणुस्साउयकम्मा जावप्पयोग बंधे । - भगवतीसूत्र श०८, उ०
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy