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१७० | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका
असातावेदनीय कमबन्ध के कारण-जिस प्रकार जीवों को सुख देने से सातावेदनीय कर्मबन्ध होता है, ठीक इसके विपरीत असातावेदनीय कर्म का बन्ध जीवों को दुःखी, पीड़ित करने से होता है । असातावेदनीय कर्मबन्ध के भी दस प्रकार हैं, यथा
(१-४) प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों की अनुकम्पा न करने से । . (५) दूसरों को दुःख देने से ।। (६) दूसरों को शोक कराने से । (७) दूसरों को झुराने-कलपाने से। (८) दूसरों से अश्रुपात कराने और पीड़ा देने से। (६) दूसरों को मारने-पीटने से, और
(१०) दूसरों को सन्ताप देने से । इन दस कारणों से जोव असातावेदनीय कर्म का बन्ध करता है।
मोहनीय कर्मबन्ध के कारण-जिस कर्म के उदय से आत्मा अपने स्वरूप के भान से, धर्ममार्ग से एवं सम्यक्त्व से विमुख रहे, सदैव पौद्गलिक सुखभोगों की वांछा करता रहे, विभाव परिणति में रत रहे, ऐसे मोहोत्पादक मोहनीय कर्म का बन्ध निम्नलिखित कारणों से होता है
(१) तीव्र क्रोध से, (२) तीन मान से, (३) तीव्र माया से, (४) तीव्र लोभ से, (५) तीव्र दर्शनमोहनीय से और (६) तोव चारित्रमोहनीय से।
इन छह कारणों से जीव को मोहनीयकार्मण शरीर प्रयोग बन्ध होता है।
तात्पर्य यह है कि तीव्रतापूर्ण चारों कषाय, दर्शन तथा चारित्र में मूढ़ होने से मोहनीय कर्म का बन्ध हो जाता है, जिसका कटु फल जीव को उक्त प्रकार से भोगना पड़ता है। वह सद्धर्माचरण, सम्यग्दर्शन एवं त्याग, तप, व्रत-प्रत्याख्यान से सदैव विमुख रहकर उत्कट भोगलिप्सु बना रहता है। लौकिक एवं पारलौकिक स्वर्गादि के सुख की वांछा करता रहता है।
___ नरकायुष्यकर्मबन्ध का कारण-वैसे तो जिन-जिन कुकृत्यों या पापों से जीव को नरकायुष्यकर्म के बन्ध के बताए गए हैं, उनका सेवन करने से नरकायु का बन्ध होता है। परन्तु विशेषरूप से नरकायुष्यकर्मबन्ध के चार कारण हैं- .
(१) महारम्भ (महाहिंसा) करने से, (२) महापरिग्रह की लालसा से, (३) मांसाहार या मृतक-भक्षण में और (४) पंचेन्द्रिय जीवों के वध से जीव