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कर्मवाद : एक मीमांसा | १६६
इन कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध होता है और मनुष्य ज्ञान - सम्यग्ज्ञान से वंचित रहता है ।
दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के कारण - दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के भी ६ कारण माने गये हैं । मुख्य कारण तो दर्शनावरणीय कार्मण शरीर प्रयोग नामक कर्म का उदय है, किन्तु विस्तृत रूप से समझने के लिए ६ कारण बताए गए हैं। यथा
(१) दर्शन या दर्शनवान् के प्रति प्रतिकूलता (मत्सरता या ईर्ष्या) से । (२) दर्शन या दर्शनवान् के नाम या स्वरूप का अपलाप करने -
छिपाने से
(३) दर्शनाभ्यास में अन्तराय डालने से ।
(४) दर्शन और दर्शनवान् के प्रति द्वेष रखने से ।
(५) दर्शन या दर्शनवान् की आशातना -अवज्ञा करने से, और
(६) दर्शन और दर्शनवान् के साथ विसंवाद ( व्यर्थ का विवाद ) करने से । इन कारणों से दर्शनावरणीय कर्म का बन्ध होता है ।
सातावेदनीय कर्मबन्ध के कारण -- जिस कर्म के उदय से जीव को सुख की प्राप्ति होती है, वह सातावेदनीय कर्म है । सातावेदनीय कर्मबन्ध के शास्त्रकारों ने १० कारण बताए हैं, यथा
(१) प्राणों (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय जीवों) की अनुकम्पा
करने से
(२) भूतों (वनस्पतिकायिक जीवों) की अनुकम्पा करने से ।
(३) जीवों (पंचेन्द्रिय प्राणियों) की अनुकम्पा करने से ।
(४) सत्त्वों (पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय के जीवों) की अनुकम्पा करने से ।
(५) उक्त सभी प्रकार के जीवों को दुःख न देने से ।
(६) उक्त जीवों में शोक ( चिन्ता या दीनता) पैदा न करने से ।
(७) उन्हें नहीं झुराने ( रुलाने या विलाप कराने) से ।
(८) उन्हें अश्रुपात न कराने या वेदना न देने से । (e) उन्हें न पीटने से और
(१०) उन्हें किसी प्रकार का परिताप न पहुँचाने से ।
इन दस कारणों से जीव सातावेदनीय कर्म बांधता है । तात्पर्य यह
है कि सातावेदनीय कर्म प्राणियों को सुख-शान्ति देने से बांधा जाता है, जिसके फलस्वरूप जीव संसार में लौकिक सुख का अनुभव करता है ।