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१६८ | जैन तत्त्वकलिका : छटो कलिका
- इस सत्रपाठ से सिद्ध है कि जब आत्मा आठों कर्मों की प्रकृतियों को · बांधने लगता है, तब सर्वप्रथम ज्ञानावरणकर्म का उदय होता है। तत्पश्चात् वह यथाक्रम से आठों कर्मों की प्रकृतियों का बन्ध कर लेता है। आठों कर्मों के बन्ध के कारण
पहले समुच्चयरूप में कर्मबन्ध के कारण बताए गए थे। अब आठों ही कर्मों के पृथक्-पृथक् बन्ध के कारणों पर विचार कर लेना आवश्यक है । भगवतीसूत्र शतक ८ उद्देशक ६ में इस विषय में विस्तृत चर्चा है। भगवान महावीर से गणधर गौतम ने प्रश्न किये हैं। भगवान ने उनका समाधान किया है। जिसका सार इस प्रकार है
ज्ञानावरणीयकर्मबन्ध के कारण-आठों कर्मों में सर्वप्रथम ज्ञानावरणीय कर्म है । मुख्यतया अज्ञान के कारण ही ज्ञानावरणीय कर्म बंधता है। परन्तु ज्ञानी पुरुषों ने ज्ञानावरणोय कर्मबन्ध के कारणों का विश्लेषण करते हए ६ कारण बताएं हैं
(१) ज्ञान अथवा ज्ञानी के प्रति प्रतिकूलता से, या इनका विरोध करने से।
(२) ज्ञान या ज्ञानी (श्रुतज्ञान या श्रुतगुरु) का नाम या स्वरूप छिपाने से अर्थात्-मेरी अपेक्षा उसकी महत्ता या कीर्ति बढ़ जाएगी, इस कुविचार से सीखे हुए श्रुतज्ञान का या श्रुतज्ञानी गुरु का नाम न बतलाना।
(३) श्रुतज्ञान पढ़ने वालों के मार्ग में रोड़े अटकाने से, विघ्न डालने से।
(४) ज्ञान या ज्ञानी पुरुषों से द्वष करने से। (५) ज्ञान अथवा ज्ञानी पुरुषों की निन्दा-आशातना करने से, तथा
(६) ज्ञान अथवा ज्ञानवान् आत्माओं के सम्बन्ध में दोष, विसंवाद (दोष प्रकट) करने से या उनके साथ विवाद करने से । जैसे-ज्ञान पढ़ने से लोग शिथिलाचारी बन जाते हैं, संसार के सब झगड़ों के मूल ये ज्ञानी हैं, अतः श्रुतज्ञान का अभ्यास न करना ही श्रेयस्कर है । इस प्रकार की भावना रखना भी ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध का कारण है।
दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दसणमोहणिज्जं नियच्छा; दंसणमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छइ; मिच्छत्तेणं उदिण्णणं गोयमा ! एवं खलु जीवे अट्ठकम्मपगडीओ बंधइ। -प्रज्ञापना सत्र पद २३, उ० १