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कर्मवाद : एक मीमांसा ] १६३ क्रिया हैं । वस्तुतः क्रिया से कर्मों का आगमन (आस्रव) होता है, बन्ध नहीं। बन्ध आत्म-प्रदेशों के साथ) तभी होता है, जब योगों (क्रियाओं) के साथ कषाय या राग-द्वेषात्मक परिणाम होते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो रागद्वषात्मक क्रिया से कर्मबन्धन होता है।
विशेषावश्यकभाष्य में एक रूपक द्वारा बताया गया है कि जिस व्यक्ति के परिणामों में राग-द्वष या कषायभाव की स्निग्धता (चिकनाहट) होगी, वहीं कर्म रज चिपकेगी, कर्मबन्ध होगा; जिसके परिणामों में राग-द्वेष या कषायभाव की स्निग्धता नहीं होगी, वहाँ कर्मरज नहीं चिपकेगी, कर्मबन्ध नहीं होगा।
___ बन्ध के प्रकार-शास्त्रों में द्रव्यकर्मबन्ध का क्रमशः चार भेदों में वर्गीकरण किया गया है- (१) प्रकृतिबन्ध, (२) स्थितिबन्ध, (३) अनुभाग (अनुभाव) बन्ध और (४) प्रदेशबन्ध ।
इन चारों का स्वरूप बन्धतत्त्व के प्रकरण में बताया गया है। बन्ध के चारों प्रकार एक साथ ही होते हैं। कर्म की व्यवस्था के ये चारों प्रधान अंग हैं। आत्म-प्रदेशों के कर्मपुद्गलों के आश्लेष या एकीभाव की दृष्टि से प्रदेशबन्ध सर्वप्रथम है। इसके होते ही उनमें स्वभाव-निर्माण, कालमर्यादा और फलशक्ति का निर्माण हो जाता है। ___ प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध, ये दोनों बन्ध जीव के योगों से होने वाले स्पन्दन एवं प्रवृत्ति से होते हैं, जबकि स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध प्रवृत्ति के साथ कषायात्मक परिणामों से होते हैं।
बन्ध के समय आत्मा और कर्म का संयोग या कर्म का व्यवस्थाकरण होता है। ग्रहण के समय कर्मपुद्गल अविभक्त होते हैं, ग्रहण के पश्चात् जब वे आत्मप्रदेशों के साथ एकीभूत होते हैं, तब प्रदेशबन्ध (एकीभावव्यवस्थाकरण) होता है।' कर्म की मूल प्रकृतियाँ और उनके कार्य
कर्मवर्गणा के पुद्गल परमाण कार्यभेद के अनुसार ८ भागों में विभक्त होते हैं। इसे प्रकृतिबन्ध, कहते हैं। इसके द्वारा कर्मों के विभिन्न स्वभावों का निर्माण होता है। कम की मूल प्रकृतियाँ आठ हैं-(१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयुष्य, (६) नामकर्म, (७) गोत्रकर्म और, (८) अन्तराय ।
१ प्रकृतिस्थित्यनुभाव-प्रदेशास्तविधयः ।
-तत्त्वार्थ० अ० ८।४