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________________ १६२ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका पानी की तरह एक दूसरे के साथ परस्पर मिले या बँधे हुए हैं, वे बद्धनोकर्म हैं। जैसे-जीव जब तक मुक्त नहीं हो जाता तब तक संसारीदशा में प्रत्येक भव में, यहाँ तक कि विग्रहगति में भी (तैजस-कार्मण के रूप में) शरीर आत्मा के साथ निरन्तर लगा ही रहता है। अतः शरीर बद्धनोकर्म है। किन्तु मकान, धन आदि हर समय, हर क्षेत्र में आत्मा के साथ निश्चितरूप से नहीं रहते । इसलिए वे अबद्ध-नोकर्म हैं। अतः जैनदर्शन मानता है कि नोकर्म, चाहे बद्ध हों या अबद्ध अपने आप में आत्मा के लिए बन्धनकर्ता नहीं होते। किन्तु इन्हीं को सुख-दुःखरूप या इन पर राग-द्वेष करने से ये कर्मबन्ध के कारण बनते हैं। इसीलिए शास्त्र में राग-द्वेष को ही कर्मबन्ध का बीज बताया गया है। निष्कर्ष यह है कि बन्धन और मुक्ति की क्षमता पदार्थों में नहीं होती, वह तो आत्मा की परिणति (भाव) में ही होती है । आत्मा को शुद्ध परिणति बन्धनरूप नहीं, अशुद्ध परिणति ही बन्धनकारक होती है। __ आत्मा के साथ स्वयं अपने आप कर्म नहीं बँधता। तब वह कैसे बन्धरूप होता है ? इस सम्बन्ध में जैनदर्शन कहता है-समग्र लोक में कार्मणवर्गणा के पुद्गल व्याप्त हैं। वे पुद्गल अपने आप में कर्म नहीं हैं, किन्तु उनमें कर्म होने की योग्यता है। ज्यों ही प्राणी के अन्तर् में राग या द्वष के भाव उठते हैं त्यों ही वे आत्मक्षेत्रावगाही कार्मणवर्गणा के पुद्गल कर्मरूप में परिणत हो जाते हैं और कार्मण नाम के सूक्ष्म शरीर के माध्यम से आत्मा के साथ बद्ध हो जाते हैं। जब तक आत्मा में मोहकम का उदय और राग-द्वषरूप वैभाविक परिणति रहती है, तब तक प्रति समय कर्मबन्ध होता है। फिर फल भोग। फलभोग के समय राग-द्वषादि विभाव जागे तो फिर कर्मबन्ध, फिर फलभोग; यह कर्मचक्र अनादिकाल से चला आरहा है । ____ कर्मबन्ध के मुख्य कारण राग-द्वष हैं।' तत्त्वार्थसूत्र में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पांच कर्मबन्ध के कारण बताए गए हैं । संक्षेप में, कषाय और योग इन दो कारणों में इन्हें समाविष्ट कर सकते हैं। एक शब्द में कहना चाहें तो क्रिया से कर्म होते या आते हैं। आत्मा की शुभाशुभ वृत्तियाँ, मन-वचन-काया की प्रवृत्तियाँ (योग) अथवा चेष्टाएँ १ 'रागो य दोसो वि य कम्मबीयं ।' २ मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्छ हेतवः । - उत्तरा० ३२७ - तत्त्वार्थसूत्र ८।१
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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