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कर्मवाद : एक मीमांसा | १५६
अशुभफलभोग से बचा सकते ? यदि ऐसा हो जाय तो संसार की सम्पूर्ण व्यवस्था ही भंग हो जाय । अतः यह निश्चित है कि अपने किये कर्मों का फल आत्मा को स्वयं ही भोगना पड़ता है ।
एक बात और है- जैनदर्शन निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से किसी पदार्थ का निर्णय करता है । व्यवहारनय की दृष्टि से तो आत्मा ही कर्मों का कर्ता माना जाता है, क्योंकि व्यवहार में आत्मा का कर्तृत्व प्रकट है । किन्तु व्यवहार में आत्मा कर्मों का कर्ता तभी माना जा सकता है, जब वह कषाय और योग के वश में हो । जब आत्मा अकषायी और अयोगी हो जाता है, तब कर्मों की अपेक्षा से आत्मा अकर्ता माना जाता है । अर्थात् --- कर्मों का कर्ता' कषायात्मा और योगात्मा है, न कि द्रव्यात्मा । द्रव्यात्मा - सिद्ध-मुक्त आत्मा तो अपने स्वभाव का कर्ता है, परभाव (कर्म आदि) का कर्ता नहीं । अगर शुद्ध आत्मा को कर्म का कर्ता माना जाएगा तो सिद्ध भगवान् का आत्मा भी कर्म का कर्ता होने लगेगा, जबकि सिद्धान्तानुसार जब जीव कर्मों से सर्वथा रहित हो जाता है, तब वह किसी भी प्रकार से कर्मों का कर्ता — उत्पादक नहीं हो सकता । और उस स्थिति में न अकेला कर्मपुद्गल ही कर्ता हो सकता है, क्योंकि वह स्वयं जड़ है ।
अतः जीव और कर्म-पुद्गल का जब तक संयोग- सम्बन्ध रहता है, तभी तक जीव को व्यवहारनय की दृष्टि से कर्मों का कर्ता कहा जा सकता है।
आत्मा कर्ता है या कर्म कर्ता है ? इस प्रश्न के उत्तर में व्यवहारनय के अनुसार तो आत्मा ही कर्म का कर्ता सिद्ध होता है, किन्तु निश्चयनयानुसार कर्म ही कर्म का कर्ता सिद्ध होता है । यदि सब प्रकार से आत्मा को ही कर्ता माना जाएगा तो उसका परगुणकर्ता स्वभाव नित्य एवं शाश्वत सिद्ध हो जाएगा । परगुणकर्ता स्वभाव नित्य सिद्ध हो जाने पर सिद्ध- आत्माओं को भी कर्मकर्ता मानना पड़ेगा । यदि ऐसा ही माना जाएगा तो आत्मा के साथ कर्मों का तादात्म्य सम्बन्ध सिद्ध हो जाएगा । फिर कोई भी आत्मा कभी भी कर्मों से मुक्त नहीं हो सकेगा । परन्तु ऐसा मानना सिद्धान्तविरुद्ध है |
अतएव यह निर्विवाद सिद्ध है कि आत्मप्रदेशों के साथ जब तक पुद्गलकर्मों का सम्बन्ध है, तभी तक आत्मा में कर्म आते हैं, कर्मों से आत्मप्रदेशों
१ अप्पा कत्ता विकत्ताय दुहाण सुहाण य ।
-उत्तरा०