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१५८ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका
कर्मों पर आत्मा की विजय तभी होती है, जब जीव को अपनी आत्मशक्ति का पूर्ण भान हो, आत्मा में यह विवेक जाग उठे कि यह सब कर्मजाल मेरी अपनी अज्ञान - मोहजन्य भूलों से फैला हुआ है। अगर मैं आत्मबल और साहस बटोरकर इन कर्मों के साथ जूझ पहूँ तो इनके छिन्नभिन्न होते देर नहीं लगेगी । परन्तु आत्मा चैतन्यशक्ति का धारक होते हुए भी पर-पदार्थों का उपभोग करता हुआ राग-द्व ेष के कारण किसी को सुखरूप और किसी को दुःखरूप मानता है तो इस रागद्वेष की वृत्ति के कारण जड़कर्म आत्मा पर हावी हो जाते हैं । वे आत्मा को विकारी बनाकर पराधीन कर देते हैं ।
कर्म के दो प्रकार
ध की अपेक्षा से कर्म के दो प्रकार हैं- द्रव्यकर्म और भावकर्म | द्रव्यकर्म कर्मवर्गणाओं का सूक्ष्म विकार हैं, और भावकर्म स्वयं आत्मा के रागद्वेषात्मक परिणाम हैं । द्रव्यकर्म से भावकर्म की और भावकर्म से द्रव्यकर्म की उत्पत्ति होती है । वस्तुतः पूर्वबद्ध द्रव्यकर्म जब अपना फल देते हैं, तब आत्मा के भावकर्म - रागद्वेषात्मक परिणाम उत्पन्न होते हैं । उन परिणामों से पुनः द्रव्यकर्म बँध जाते हैं । बीज से अंकुर और अंकुर से बीज की तरह इनका उत्पत्तिक्रम अनादिकाल से चला आ रहा है । "
कर्मों का कर्ता कौन, भोक्ता कौन ?
कर्मकत्व एवं भोक्तृत्व के विषय में दार्शनिकों के दो मुख्य मत हैं-(१) कर्म करने और फल भोगने में जीव स्वतन्त्र नहीं, ईश्वर या अदृश्य शक्ति के अधीन है, (२) मनुष्य कर्म करने में तो स्वतन्त्र है, परन्तु पूर्वकृत अशुभ कर्म के अशुभ फलभोग के निराकरण या उससे बचने के लिए देवीदेवो के समक्ष यज्ञ या स्तुति करके उन्हें प्रसन्न करना, ताकि अशुभफल से बच सके ।
परन्तु इन दोनों युक्तिविरुद्ध मन्तव्यों से आत्मा को स्वतन्त्र कर्तृत्वशक्ति का ह्रास होता है, फलतः कर्मक्षय करने के लिए तप त्याग आदि साधना में पुरुषार्थ न करके वे विभिन्न देवी-देव या अदृश्य शक्ति के आगे प्रार्थना या मिन्नतें करते हैं । परन्तु देवी- देव या अदृश्य ईश्वर क्या किसी जीव के शुभ-अशुभ कर्मों को बदल सकते हैं ? क्या अशुभकर्मकर्ता को
१ जीवपरिपाकहेउं कम्मत्ता पोग्गला परिणमति ।
पोग्गल - कम्मनिमितं जीवो वि तहेव परिणमइ । — प्रवचनसार वृत्ति पृ० ४५५