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१५६ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका
शुद्ध है, तो उस पर कर्म- कालिमा कैसे लग सकती थी ? यदि शुद्ध आत्मा पर भी कर्ममल लगे तब तो सिद्ध परमात्मा पर भी वह लग सकता है ? परन्तु ऐसा नहीं है । तब प्रश्न उठता है कि आत्मा को कर्म कैसे लगे ? कब लगे ? बिना कुछ किये ही कर्म और आत्मा का संयोग कब से और कैसे 'हुआ ? यदि विशुद्ध आत्मा के अकारण ही कर्म- मैल लगने लगेगा, तब तो इधर कर्म - मैल को धोकर आत्मा को शुद्ध करने हेतु तप, जप, संयम, धर्म आदि की साधना की जाएगी, उधर से कर्म - रज चिपटती जाएगी । फिर तो कर्म और आत्मा का यह सिलसिला चलता ही रहेगा ।
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जैन सिद्धान्तमर्मज्ञों ने ऐसी स्थिति में, कर्म पहले है या आत्मा ? कर्म आत्मा के कब से लगे ? इत्यादि उठने वाले प्रश्नों पर तर्कसंगत विचार किया है। उनका दृढ़ और स्पष्ट मन्तव्य है कि कर्म और आत्मा इन दोनों में पहले पीछे का प्रश्न हो नहीं उठता । 'मुर्गी पहले है या अण्डा इन दोनों में जैसे पहले-पीछे का प्रश्न नहीं उठता वैसे ही कर्म और आत्मा इन दोनों में भी पहले पीछे का कोई प्रश्न नहीं है । आत्मा को पहले पीछे मानने पर आत्मा भी उत्पन्न - विनष्ट होने वाला पदार्थ हो जाएगा । किन्तु जैन दर्शन ने आत्मा को नित्य, शाश्वत माना है । इसी प्रकार कर्म को पहले मानने पर उसका अस्तित्व आत्मा के किए बिना सिद्ध होगा, जो असम्भव है । आत्मा को प्रथम मानने पर प्रश्न उठेगा, शुद्ध आत्मा पर कर्म कैसे लगे ? अतः कर्मसिद्धान्तमर्मज्ञों ने आत्मा और कर्म को तथा आत्मा एवं कर्म के सम्बन्ध को भी अनादि माना है । '
फिर प्रश्न उठता है कि यदि कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि है तो वह टूटेगा कैसे ? अनादिकालीन वस्तु और उसके अनादि सम्बन्ध का तो कभी नाश नहीं हो सकता । इस प्रश्न का समाधान यह किया गया है— कि व्यक्तिरूप से कोई एक कर्म अनादि नहीं है, किन्तु प्रवाहरूप से, समष्टि की दृष्टि से कर्म अनादि है । पुराने कर्म अपनी-अपनी स्थिति पूर्ण होने पर आत्मा से अलग होते जाते हैं और नये-नये कर्म बँधते जाते हैं । पुराने कर्मों का आत्मा से अगल होने का नाम 'निर्जरा' है और नये कर्मों के बँध जाने का नाम 'बन्ध' है ।
तात्पर्य यह है कि आत्मा के साथ किसी एक कर्मविशेष का संयोग
१ यथाऽनादिः स जीवात्मा, यथाऽनादिश्च पुद्गलः । द्वयोर्बन्धोऽप्यनादिः स्यात् सम्बन्धो जीवकर्मणोः ॥
- पंचाध्यायी २।३५