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________________ कर्मवाद : एक मीमांसा | १५५ मूर्त कर्मों का अमूर्त आत्मा के साथ बन्ध कैसे प्रश्न होता है, कर्म पुद्गलरूप होने से मूत-रूपी हैं, और आत्मा अमूतिक-अरूपी है । फिर अमूर्तिक के साथ मूर्तिक का बन्ध कैसे हो सकता है ? जैसे-- वायु और अग्नि दोनों मूलद्रव्य हैं, इनका अमूत आकाश पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, इसी प्रकार मूत कर्म का भी अमूर्त आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। परन्तु यहाँ कर्मों का आत्मा पर प्रत्यक्ष प्रभाव देखने में आता है। इसका समाधान कर्ममर्मज्ञ आचार्य यों करते हैं कि मूतद्रव्य अमूत द्रव्य को प्रभावित कर ही नहीं सकता, ऐसा एकान्त सिद्धान्त नहीं है। जैसे-ज्ञान आत्मा का गुण होने से अमूत्त है, मदिरा और विष आदि पदार्थ रूपी होने से मूत्त होते हैं । जब मनुष्य मदिरापान कर लेता है तो उसका ज्ञानगुण मदिराजन्य प्रभाव से प्रभावित होता प्रत्यक्ष देखा जाता है । जैसे मूत मदिरा अमूत्त ज्ञानगुण को प्रभावित कर देती है। इसी तरह मृत्त कर्म अमृत आत्मा को अपने फल से प्रभावित कर देते हैं। जैनदर्शन अनेकान्तवादी है। अनेकान्त की दृष्टि से आत्मा अमूत भी है और मूत भी । कर्मप्रवाह अनादिकालीन होने से संसारी जीव अनादि काल से कर्मपरमाणुओं से आबद्ध चला आ रहा है और वे कर्मपरमाण स्वर्ण पर लगे मैल की भाँति आत्मा को आच्छादित किये हुए हैं । इस कारण आत्मा सर्वथा अमूर्त हो नहीं है। कर्मसम्बद्ध होने के कारण वह कथंचित् मूत भी है। फलतः मूत कर्म का मूत आत्मा को प्रभावित कर देना अस्वाभाविक नहीं है ।' संसारी आत्मा के प्रत्येक आत्म-प्रदेश पर अनादिकाल से अनन्तानन्त कर्मवर्गणा के पुद्गल कार्मणशरीर के रूप में सदा चिपके रहते हैं। वास्तव में कर्मपुद्गलों के अस्तित्व में ही नये कर्मों का ग्रहण होता है। कर्मों से पूर्ण रूप से मुक्त सिद्ध भगवान् के कामण शरीर नहीं है । अतः उनके कर्मों का बन्ध भी नहीं होता। कर्म और आत्मा का संयोग कब से, कैसे ? - जैनदर्शन निश्चयदष्टि से आत्मा को शुद्ध मानता है। जब आत्मा १ जम्हा कम्मस्स फलं, विसयं फासेहिं भुजदे णिययं । जीवे सुहंदुक्खं, तम्हा कम्माणि मुत्ताणि । मुत्तो कासदि मुत्तं, मुतो मुत्तेण बंधमणुहवदि । जीवो मुत्ति विरहिदो गाहिदत तेहिं उग्गहदि ।। -पंचास्तिकाय १४१-१४२
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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