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१५० | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका
उदाहरणार्थ - कृषक कृषिकर्म में तभी सफल मनोरथ होता है, जब पंचकारण - समवाय अनुकूल हों । जैसे- पहले तो खेत में बीज बोने का ठीक समय हो, तत्पश्चात् उस बीज का अंकुरित होने का स्वभाव हो, क्योंकि जला हुआ बोज होगा तो उसका अंकुरित होने का स्वभाव न होने से समय पर बोने पर भी अंकुरित नहीं होगा, फिर स्वभावानुसार नियति ( होनहार - खेत में अन्न उत्पन्न होने की ), तत्पश्चात कृषकं का शुभकर्मोदय होना चाहिए ताकि निर्विघ्नतापूर्वक खेती हो जाए; तदनन्तर उसकी सफलता पुरुषार्थ पर निर्भर है । पुरुषार्थ नहीं होगा तो ये चारों कारण होने पर भी कृषिकार्य सिद्ध नहीं होगा ।
अतः विश्व को विविधता या विषमता का मुख्य कारण तो कर्म है, और काल आदि उसके सहकारी कारण हैं ।
कर्म को मुख्य कारण मानने से छद्मस्थ व्यक्ति को अभीष्ट दिशा में स्वयं सत्पुरुषार्थ करने का अवकाश रहता है । जन-जन के मन में आत्मबल, आत्मविश्वास और आत्मपुरुषार्थ भाव पैदा होता है।
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और आचार्य हरिभद्र कहते हैं - काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकर्म (दैव या भाग्य ) और पुरुषार्थ; इन पांचों कारणों में से किसी एक को ही एकान्तरूप से कारण माना जाए और शेष कारणों की उपेक्षा की जाए, यही मिथ्यात्व है, और इन्हीं पांच कारणों का समवाय कार्य निष्पत्ति में निमित्त माना जाए, यही सम्यक्त्व है ।
श्वेताश्वतर उपनिषद् में भी पाँचों कारणों का संयोग, कार्य या सुख-दुःख की निष्पत्ति में कारण बताया गया है ।
भगवद्गीता में प्रत्येक कार्य के पांच कारण इस प्रकार बताए गए हैं- अधिष्ठान ( देश - काल), कर्ता, कारण ( विविध साधन) विविध पृथक्पृथक् चेष्टाएँ (क्रियाएँ) और पांचवाँ देव । मनुष्य मन, वाणी और शरीर से जो भी अच्छा-बुरा कर्म ( कार्य ) करता है, उसके ये पांच कारण होते हैं । ऐसा होने पर भी जो अकेले स्वयं को ही कर्मों का कर्ता मानता है, वह अकृतबुद्धि (अज्ञानी) यथार्थ नहीं समझता ।'
(क) कालो सहाव णियई पुव्वकम्म पुरिसकारे गंता । मिच्छत्तं तं चेव उ समासओ हुंति सम्मत्तं ॥
शास्त्रवार्त्तासमुच्चय १६१-१९२
- सन्मतितर्क प्रकरण ३।५३
(क्रमश:)