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कर्मवाद : एक मीमांसा | १५१
कर्मवाद की उपयोगिता
कर्मवाद को माने बिना जन्म-जन्मान्तर, तथा इहलोक - परलोक का सम्बन्ध घटित नहीं हो सकता । संसारी आत्माओं की विभिन्नता, विचित्रता और विषमता के कारण का समाधान भी कर्मवाद ही कर सकता है, और कोई नहीं । आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं, गतियों-योनियों, पुनर्जन्म - घटनाओं के तथा एक हो माता के उदर से एक साथ पैदा होने वाले दो युगल बालकों के स्वभाव, सुख-दुःख तथा अन्य विसदृशताओं के क्या कारण हैं ? गर्भस्थ शिशु को बिना शुभाशुभकर्म किये अनुकूल-प्रतिकूल फल प्राप्ति, क्यों ? अनपढ़ माता-पिता को प्रतिभाशाली पुत्र और शिक्षित माता-पिता मूर्ख पुत्र आदि विषमता क्यों ? एक छात्रावास में एक सरीखी सब व्यवस्था, सुविधा एवं परिस्थिति होने पर भी छात्रों की बौद्धिक क्षमता आदि में न्यूनाधिकता क्यों ? इत्यादि ज्वलन्त प्रश्नों का यथोचित समाधान कर्मवाद को माने बिना नहीं हो सकता ।
किसी भी विघ्न, संकट या विपत्ति आने पर साधारण मानव घबरा - कर, किंत्तव्यविमूढ़ होकर प्रारम्भ किये हुए कार्य को छोड़ बैठता है, उसके पुरुषार्थ और साहस को निराशा और मूढ़ता दबा देती है । ऐसे समय में आशा और स्फूर्ति का संचार करने वाला, साहस और आत्मबल प्रदान करने वाला, बुद्धि को सन्तुलित और स्थिर करने वाला, उन्नति पथ पर चढ़ने के लिए अनुपम साहस भरने वाला, तथा उपस्थित विघ्नादि के मूल कारण क्या ये निमित्त हैं या मेरा उत्पादन है ? इस पर चिन्तन की प्रेरणा देने वाला गुरु कर्मवाद ही है ।
अपनी वर्तमान स्थिति को बदलने के लिए अपनी आत्मशुद्धि करके कर्मों से मुक्ति की प्रेरणा देने वाला, कर्मवाद ही है ।
सूत्रकृतांग के इस कथन से कर्मवाद पर विश्वास करने की प्रेरणा मिलती है कि जैसा मैंने पहले कर्म किया था । वैसा ही फल मेरे सामने दुःख के रूप में आ गया है ।
(ग) कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा, भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम् । संयोग एषां न स्वात्मभावादात्माऽप्यनीशः सुखदुःखहेतोः । - श्वेताश्वतर उपनिषद् १।२
(घ) भगवद्गीता अ० १८ ।१४-१५
१ 'जं जारिसं पुव्वमकासि कम्मं तमेव आमच्छति संपराए ।'
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- सूत्रकृतांग