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कर्मवाद : एक मीमांसा | १४६ यदच्छावाद युक्तिविरुद्ध है । उसके भरोसे रहकर मानव पुरुषार्थहीन हो जाता है । यदृच्छावाद कारण-कार्यवाद का भी विरोधी है, जो दार्शनिकों को कथमपि मान्य नहीं हो सकता है।
(५) दैववाद--केवल पूर्वकृत कर्मों के भरोसे बैठे रहना और किसी प्रकार का पुरुषार्थ न करना दैववाद है । इसे भाग्यवाद भी कह सकते हैं। इच्छा स्वातंत्र्य को इसमें कोई अवकाश नहीं है। इसमें सम्पूर्ण घटनाचक्र परतन्त्रता के आधार पर चलता है। मनुष्य भाग्य के हाथ का खिलौना बनकर जोता है। उसे निःसहाय होकर अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भोगना पड़ता है । फलभोग के समय वह किंचित् भी परिवर्तन नहीं कर सकता। जिस कर्म का जिस रूप में फल भोगना नियत है, उस कर्म का उसी रूप में फल भोगना पड़ता है।
दैववाद और नियतिवाद में अन्तर यह है कि दैववाद में कर्म की सत्ता पर विश्वास रहता है, जबकि नियतिवाद कर्म के अस्तित्व को ही नहीं मानता। दोनों में पराधीनता है । दैववाद में पराधीनता कर्मों के कारण है, नियतिवाद में बिना किसी कारण के है। दैववादी कर्मक्षय करने या शुभकर्म करने का कोई पुरुषार्थ नहीं कर सकता। इसलिए कर्मवाद का स्थान वह नहीं ले सकता।'
(६) पुरुषार्थ वाद-अनुकूल या प्रतिकूल वस्तु की प्राप्ति पुरुषार्थ पर निर्भर है । अगर शुद्ध और यथार्थ पुरुषार्थ किया जाए तो अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है। पुरुषार्थ ही सब कुछ है । भाग्य या देव नाम की कोई अलग वस्तु नहीं है । पूर्व पुरुषार्थ हो भाग्य या दैव है । यह पुरुषार्थवाद का स्वरूप है। पुरुषार्थवाद का आधार इच्छा स्वातंत्र्य है। अनदर्शनसम्मत पंचकारण समवायवाद
कर्मवाद के समर्थक विचारकों ने इन सब वादों का कर्मवाद के साथ समन्वय करते हुए 'पंचकारण समवायवाद' प्रस्तुत किया है। जैनदर्शन का मन्तव्य है कि जैसे किसी भी कार्य की उत्पत्ति केवल एक कारण पर नहीं अपितु अनेक कारणों पर निर्भर है, वैसे ही कर्म के साथ-साथ काल, स्वभाव, नियति, दैव और पुरुषार्थ भी विश्ववेचित्र्य या विश्ववैषम्य के कारणों के अन्तर्गत समाविष्ट हैं।
१ (क) आत्म-मीमांसा, कारिका ८६-६१
(ख) 'पूर्वजन्मकृतं कर्म तद्देवमिति कथ्यते ।'
--हितोपदेश