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________________ १४८ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका (३) नियतिवाद-बहुत से दार्शनिक एवं धर्मप्रवत्तक नियतिवाद के भी समर्थक थे। उनका कथन है कि संसार में जो कुछ होना होता है, वही होता है, उसमें किंचित् भी अन्तर नहीं पड़ता। संसार की प्रत्येक घटना पहले से ही नियत है। बौद्धपिटकों, जैनागमों एवं श्वेताश्वतर आदि उपनिषदों में भी नियतिवाद के सम्बन्ध में वर्णन मिलता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने नियतिवाद का स्वरूप बताते हुए लिखा हैजिस वस्तु को जिस समय, जिस कारण से, जिस रूप में उत्पन्न होना होता है, वह वस्तु उस समय, उसी कारण से, उसी रूप में अवश्य उत्पन्न होती है। सामञफलसुत्त में मंखलीगोशालक (आजीवक) के नियतिवाद का वर्णन करते हुए बताया है कि प्राणियों की अपवित्रता और शुद्धता का कोई भी कारण नहीं है, वे बिना ही कारण अपवित्र होते हैं और अकारण ही शुद्ध होते हैं। अपने सामर्थ्य के बल पर कुछ भी नहीं होता। बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम आदि कुछ भी नहीं है, जो कुछ भी परिवर्तन होता है, वह नियति के कारण ही होता है। नियति के अभाव में कोई भी कार्य संसार में नहीं हो सकता। भले ही काल, स्वभाव आदि अन्य कारण उपस्थित हों। परन्तु एकान्त नियतिवाद भी पुरुषार्थ का घातक है। इसके भरोसे रहकर मानव भाग्यवादी बन जाता है। अतः कर्मवाद को मानना ही श्रेयस्कर है। (४) यहरछावाद-यदृच्छावादियों का मन्तव्य है कि किसी निश्चित कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति हो जाती है। बिना ही निमित्त के अकस्मात् किसी कार्य या घटना का हो जाना यदृच्छा है । यदच्छा का अर्थ अकस्मात् या 'अनिमित्त' है। यदृच्छावाद, अकस्मात्वाद, अकारणवाद, अहेतुवाद और अनिमित्तवाद आदि सब एकार्थक हैं। यदच्छावाद का उल्लेख श्वेताश्वतर उपनिषद्, महाभारत शान्तिपर्व तथा न्यायसूत्र आदि ग्रन्थों में मिलता है। १ (क) सूत्रकृतांग २।१।१२, २।६ (ख) व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक १५ (ग) उपासकदशांग अ० ६-७, (घ) दीघनिकाय-सामञफलसुत्त (ङ) शास्त्रवार्तासमुच्चय (हरिभद्रसूरि) १७४ २ (क) न्यायभाष्य ३।२।१ (ख) न्यायसूत्र ४।१।२२ (ग) श्वेताश्वतर उपनिषद् १।२ (घ) महाभारत शान्तिपर्व ३३।२३ (ङ) न्यायभाष्य (पं० फणिभूषणकृत अनुवाद) ४।१।२४
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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