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________________ कर्मवाद : एक मीमांसा | १४७ होतीं । जड़-चेतन द्रव्यों के पारस्परिक संयोजन में ईश्वर निमित्तकारण है । वही विश्व का नियामक है । इसके मतानुसार जीव की स्वतन्त्र कर्तृत्वभोक्तृत्व शक्ति नहीं है । अतः यहाँ कर्मवाद ईश्वर कर्तृत्व के कारण निष्फल और निरर्थक हो जाता है । कालादि एकान्तिक पंचकारणवाद कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, यदृच्छावाद और पुरुषार्थवाद - ये पांचों अपने-अपने मत को कर्म के स्थान में प्रस्तुत करते हैं और जगत् की विचित्रताओं या विषमताओं का कारण काल आदि को बताते हैं । (१) कालवाद के समर्थकों का मत है कि विश्व की सभी वस्तुएँ सृष्टिगत प्राणियों के सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण आदि, सबका आधार काल है । काल के कारण हो सारी घटनाएँ होती हैं । किन्तु कालवाद प्राणी को काल के भरोसे रखकर उसके पुरुषार्थ को पंगु बना देता है । काल के भरोसे बैठा रहकर मनुष्य धर्मध्यान, रत्नत्रय साधना आदि में पुरुषार्थ नहीं कर पाता । अतः कालवाद कर्मवाद का स्थान नहीं ले सकता ।' (२) स्वभाववाद को भी बहुत से विचारक कर्मवाद का स्थानापन्न मानते हैं। उनका कहना है कि जगत् में जो कुछ भी विचित्रता है, वह स्वभाव के कारण है | काँटों का नुकीलापन, पशु-पक्षियों की विचित्रता आदि सभी स्वभाव के कारण हैं । स्वभाव के बिना मूंग नहीं पक सकते, भले ही काल आदि क्यों न हों । शास्त्रवार्तासमुच्चय में स्वभाववाद का पक्ष स्थापन करते हुए लिखा है - किसी भी प्राणी का माता के गर्भ में प्रवेश, बाल्यावस्था, शुभाशुभ अनुभवों की प्राप्ति आदि बातें स्वभाव के बिना घटित नहीं हो सकतीं । स्वभाव ही समस्त घटनाओं का कारण है । स्वभाववादी विश्व की विचित्रता का नियामक किसी को नहीं मानता । परन्तु कर्मक्षय करने का, धर्माचरण का एवं रत्नत्रय साधना का पुरुषार्थ स्वभावाश्रित रहने पर नहीं हो सकता । अतः स्वभाववाद कर्मवाद का कार्य पूर्णरूप से नहीं कर सकता । " १ (क) अथर्ववेद १६।५३-५४. (ख) कालेन सर्वं लभते मनुष्यः """ ( ग ) शास्त्र वार्तासमुच्चय १६५-१६८ - महाभारत शान्तिपर्व २५।३२ २ (क) श्वेताश्वतरोपनिषद् १८ (ख) भगवद्गीता ५।१४ ( ग ) महाभारत शान्तिपर्व २५/१६ (घ) शास्त्रवार्तासमुच्चय १६६-१७२
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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