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________________ १४६ / जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका जब तक उसका फल नहीं मिल जाता । अदृष्ट का फल ईश्वर के माध्यम से मिलता है। उसका कारण यह बताया गया है कि यदि ईश्वर कर्मफल की व्यवस्था न करे तो कर्म निष्फल हो जाएँ। किन्तु जगत्कर्ता (जगत् की विचित्रताओं का कर्ता), धर्ता, संहर्ता ईश्वर को मान लेने पर आत्मा की स्वतन्त्र कतृत्वशक्ति दब जाती है। ईश्वर के हाथ में कर्मफल की सत्ता देने पर तो जीव को शुभकर्म करने या कर्मों का क्षय करने का कोई प्रोत्साहन एवं स्वातंत्र्य नहीं मिल सकता। प्रकृतिवाद सांख्यदर्शन कर्म को प्रकृति का विकार मानता है। अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों का 'प्रकृति' (प्रधान तत्त्व) पर संस्कार पड़ता है। उस प्रकृतिगत संस्कार से कर्मों के फल मिलते हैं ? किन्तु यह कल्पना भी युक्तिसंगत नहीं है। इससे अचेतन प्रकृति को कर्म और कर्मफल को मानकर आत्मा को सर्वथा अकर्ता बताया गया है, किन्तु भ्रान्तिवश उसे भोक्ता माना गया है, जो कि सर्वथा असंगत है। जो कर्ता नहीं, वह भोक्ता कैसे ? इस प्रकार 'प्रकृति' कर्मवाद का स्थान नहीं ले सकता। वेदान्त का मायावाद ___यह भी कर्मवाद की पूर्ति नहीं कर पाता। क्योंकि माया का संसर्ग रहते हुए भी आत्मा को तो शुद्ध, कूटस्थ नित्य, एक स्वभाव माना गया है। अतः माया तो केवल निष्क्रिय ही सिद्ध होती है। . बौद्धदर्शन का चित्तगत वासनावाद बौद्धों ने कर्म को चित्तगत वासना माना है, वही सुख-दुःख का कारण बनती है। किन्तु एकान्त क्षणिकवाद के कारण आत्मा में कर्मकर्तृत्वभोक्तृत्व की व्यवस्था घटित नहीं हो सकती। भूतवाद पंचभूतों से चेतन-अचेतन सभी पदार्थों की उत्पत्ति मानने वाले भूतवादियों के मत में पंचभौतिक शरीर ही आत्मा है, जो यहीं समाप्त हो जाता है । आत्मवाद एवं लोकवाद (पुनर्जन्म) को न मानने के कारण जगत की विचित्रताओं, विषमताओं आदि का यथार्थ समाधान पंचभूतवादियों के पास नहीं है। पुरुषवाद इसके अनुसार सृष्टि का रचयिता, पालनकर्ता और संहर्ता पुरुषविशेष-ईश्वर है। उसकी ज्ञानादि शक्तियाँ प्रलयकाल में भी नष्ट नहीं
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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