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________________ १४२ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका के आश्रित है, (७) अजीव जीवों द्वारा संगृहीत है, और (८) जीव कमसंगृहीत हैं। ___ इससे स्पष्ट है कि विश्व के आधारभूत आकाश, वायु, जल और पृथ्वी, ये चार अंग हैं, जिनके आधार पर विश्व की सम्पूर्ण व्यवस्था निर्मित हई है। संसारी जीव और पुद्गल (जड़) दोनों आधार-आधेय भाव एवं संग्राह्य-संग्राहकभाव से रहे हए हैं। जीव आधार है, शरीर उसका आधेय है। कर्म संसारी जीव का आधार है, और संसारी जीवकर्म का आधेय है। कर्मबद्ध जीव ही शरीरयुक्त होता है। गमनागमन, भाषण, चिन्तन-मनन आदि सभी क्रियाएँ कर्मबद्ध जीव की होती है। आस्तिव्य का आधार : लोकवाद प्रस्तुत लोकवाद का जिनोक्त दृष्टि से ज्ञान तथा मनन-चिन्तन करने पर एक बात स्पष्ट होती है कि लोक के विषय में स्पष्ट ज्ञान न होने से श्रुतधर्म-चारित्रधर्म का आराधक व्यक्ति स्वयं कतृत्व के पुरुषार्थ से भटककर ईश्वर, ब्रह्मा, देव या किसी अदृश्य शक्ति के हाथ का खिलौना बन सकता है। फिर पूर्वजन्मकृत कर्मों को काटने के लिए धर्माचरण में पुरुषार्थ न करके ऐसी ही किसी अदृश्य शक्ति का आश्रित बन जाता है। उसकी कृपा की आकांक्षा करने लगता है। अपने पुरुषार्थ से हीन हो जाता है। जबकि सत्य यह कि लोक (सृष्टि या विश्व) की स्थिति कमों के कारण होती है, कर्म करने वाला जीव स्वयं है, वह कर्मवश ही पूर्वोक्त तीनों लोकों में भ्रमण करता है। लोक का स्वरूप क्या है ? उसमें मेरा क्या स्थान है ? इत्यादि विचार करके वह लोकवाद से प्रेरणा लेता है कि मुझे लोक में भ्रमण न करके लोकाग्र में स्थिर होने का अहर्निश पुरुषार्थ करना चाहिए। ___ मध्यलोक में मनुष्यभव में कर्मभूमिक मनुष्य क्षेत्र में ही रत्नत्रयरूप धर्माचरण का पुरुषार्थ हो सकता है; अन्य लोकों में नहीं। जिस लोक में अतीव भौतिक सुख है, वहाँ भी मोक्षविषयक पुरुषार्थ नहीं हो सकता और न अत्यन्त दुःखयुक्त लोक (अधोलोक) में ही यह पुरुषार्थ हो सकता है। मध्यलोक में क्षेत्रकृत, व्यक्तिगत या परकृत वेदना अधोलोक की अपेक्षा बहुत ही थोड़ी है, उतनी वेदना में से ही मनुष्य अपना आलस्य और प्रमाद दूर १ भगवतीसूत्र १६
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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