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________________ - १४० | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका जगत् किसी के द्वारा कृत मानते ही, उसकी आदि और अन्त मानना होगा जो उपादानादि कार्यकारणभाव के सिद्धान्तविरुद्ध होगा । इसीलिए जैनदर्शन विश्व को किसी के द्वारा किया हुआ और सादि- सान्त नहीं मान कर स्वाभाविक एवं अनादि-अनन्त मानता है । विश्व- स्थिति के मूलसूत्र स्थानांगसूत्र में इसी सन्दर्भ में विश्वस्थिति की आधारभूत दस बातें बताई गई हैं (१) पुनर्जन्म - संसारी जीव मर कर बार-बार जन्म लेते हैं । (२) कर्मबन्ध - संसारी जीव सदा ( प्रवाहरूपेण अनादिकाल से ) कर्म बाँधते हैं। (३) मोहनीय कर्मबन्ध - संसारी जीव सदैव प्रवाहरूप से अनादिकाल से सतत मोहनीयकर्म बाँधते हैं । (४) जीव - अजीव का अत्यन्ताभाव - ऐसा न तो कभी हुआ है, न सम्भव है और न ही भविष्य में होगा कि जीव अजीव हो जाए या अजीव जीव हो जाए । (५) त्रस-स्थावर-अविच्छेद - ऐसा न तो कभी हुआ है, न वर्तमान में होता है और न ही भविष्य में होगा कि सभी त्रस जीव स्थावर बन जाएँ अथवा सभी स्थावरजीव त्रस हो जाएँ या सभी जीव केवल त्रस या केवल स्थावर हो जाएँ । (६) लोकालोक पृथक्त्व - ऐसा न तो कभी हुआ है, न होता है और न ही भविष्य में होगा कि लोक अलोक हो जाए । (७) लोकालोक अन्योन्याऽप्रवेश - ऐसा न तो कभी हुआ है, न होता है और न ही भविष्य में कभी होगा कि लोक अलोक में प्रविष्ट हो जाए या अलोक लोक में प्रविष्ट हो जाए । (८) लोक और जीवों का आधार - आधेय-सम्बन्ध - जितने क्षेत्र का नाम लोक है, उतने क्षेत्र में जीव है, और जितने क्षेत्र में जीव है, उतने क्षेत्र का नाम लोक है । (e) लोक मर्यादा – जितने क्षेत्र में जीव और पुद्गल गति कर सकते हैं, उतना क्षेत्र लोक है और जितना क्षेत्र लोक है, उतने क्षेत्र में हो जीव और पुद्गल गति कर सकते हैं । (१०) अलोकगति - कारणभाव - लोक के समस्त अन्तिम भागों में आबद्ध पार्श्व - स्पष्ट पुद्गल हैं । लोकान्त के पुद्गल स्वभाव से ही रूखे होते हैं.
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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