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१३८ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका प्राचीन काल में एक मत अण्डे से जगत् की उत्पत्ति मानता था। उसकी मान्यतानुसार जगत् की उत्पत्ति की प्रक्रिया बहुत ही विचित्र है।'
ये सब जगत् कर्तृत्ववादी अपने-अपने मत को सिद्ध करने के लिए विभिन्न तर्क प्रस्तुत करते हैं।
उनके मुख्य-मुख्य तर्क ये हैं
(१) प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कर्ता अवश्य होता है । इस विशाल विश्व रूप कार्य का भी कोई न कोई कर्ता अवश्य होना चाहिए । यह विचित्र जगत किसी न किसी कुशल, सर्वशक्तिमान, बुद्धिमान कर्ता द्वारा रचित होना चाहिए। वह कुशल, शक्तिमान, बुद्धिमान जगत्कर्ता देव, ब्रह्मा, स्वयम्भू, विष्णु, महेश्वर, ईश्वर या प्रकृति आदि अवश्य है।
(२) ये विशाल भूखण्ड, किसके कुशल एवं सशक्त हाथों की कृति है ? ये उत्तग शिखर वाले पर्वत किसके द्वारा रचित हैं ? यह आकाश किसके कौशल का परिचय दे रहा है ? ये असंख्य तारे, नक्षत्र आदि किसके कतत्व से सम्पन्न हैं ? इस चमकते हुए सूर्य और शान्ति बरसाते हुए चन्द्र का निर्माता कौन है ? ये उत्त ग तरंगों से उछलते-गरजते हए समुद्र किसकी कृति हैं ? प्रकृति के कण-कण के भाग्य विधाता मनुष्य का स्रष्टा कौन है ? किसने इन सबका व्यवस्थित आयोजन किया है ? कौन इन सबको धारण किये
इन सब प्रश्नों का समाधान जैनदर्शन ने दिया है कि जगत् का बनाने वाला ब्रह्मा आदि कोई भी कर्ता दृष्टिगोचर नहीं है । निरंजन-निराकार अमूर्त ईश्वर तो जगत् जैसे मूर्त पदार्थ को नहीं बना सकता । यदि कहें कि ईश्वर ने जगत् की स्थिति बिगड़ती देखकर दया करके जगत् में अवतार लिया और सृष्टि की रचना की। परन्तु यह बात भी न्यायसंगत नहीं लगती, क्योंकि प्रश्न होता है यदि ईश्वर ने जगत् को बनाया है तो किस उपादान सामग्री से बनाया ? कोई भी कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा नहीं बना सकता । यदि कहें कि ईश्वर ने अपने आप से ही जगत् की रचना की है, वह स्वयं ही नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव या पर्वत, भूखण्ड, समुद्र आदि
१ मनुस्मृति अ० १ २ कर्तास्ति कश्चिद् जगत्: सचैकः स सर्वगः स स्ववशः स नित्य । -स्याद्वादमंजरी ___ कार्यायोजनधृत्यादे
-न्यायसिद्धान्तमुक्तावली तत्त्वदीपिका ३ यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ?
-गीता ४७