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________________ १३६ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका नित्यत्ववाद इन द्रव्यों के अस्तित्व को अनादि अनन्त सिद्ध कर देता है। जब छहों द्रव्य अस्तित्व की दृष्टि से अनादि-अनन्त सिद्ध हो जाते हैं तो विश्व की शाश्वतता स्वतः सिद्ध हो जाती है। ' यही कारण है कि स्थानांगसूत्र में पंचास्तिकाय को ध्र व, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अवस्थित और नित्य बताकर समग्र लोक को भी स्वतः ध्रव, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अवस्थित और नित्य बताया है। दूसरे शब्दों में, यह विश्व भूतकाल में विद्यमान था, वर्तमानकाल में विद्यमान है, और भविष्य में भी विद्यमान रहेगा। वह न तो कभी बनाया गया, न कभी विनाश को प्राप्त होगा। अतः काल की दृष्टि से लोक आदिरहित और अन्तरहित है। जब भगवान् महावीर से उनके विनीत शिष्य रोहगुप्त द्वारा पूछा गया-"भगवन् ! पहले लोक हआ और फिर अलोक हआ ? अथवा पहले अलोक हुआ और फिर लोक हआ ?" तब भगवान ने समाधान किया"रोह ! लोक और अलोक ये दोनों पहले से हैं और पीछे भी रहेंगे। अनादिकाल से हैं, और अनन्तकाल तक रहेंगे। दोनों शाश्वतभाव हैं, अनानुपूर्वी हैं। इनमें पौर्वापर्य (पहले-पीछे का) कम नहीं है । विश्व किसी के द्वारा निर्मित या अनिर्मित प्राचीनकाल में वैदिक युग भारत में मनुष्यों का एक वर्ग अग्नि, वायु, जल, आकाश, विद्य त, दिशा आदि शक्तिशाली प्राकृतिक तत्त्वों का उपासक था। वह प्रकृति को ही 'देव' मानता था। उस वर्ग का कथन था कि यह विश्व देव द्वारा बीज की तरह बोया गया (किसी स्त्री में वीर्य डाला गया); अथवा देव द्वारा रक्षित या कृत विश्व है और उससे मनुष्य या दूसरे प्राणी आदि हुए, इसके प्रमाण छान्दोग्योपनिषद् आदि में मिलते हैं। कोई प्रजापति ब्रह्मा द्वारा विश्व की रचना मानते हैं। इसके प्रमाण भी उपनिषदों में मिलते हैं। १ (क) स्थानांगसूत्र ५-३-४४१, (ख) लोकप्रकाश २-३ (ग) कालओ, धुवे, णितिए, सासए, अक्खए, अव्वए, अव्वट्ठिए, णिच्चे। -स्थानांग ५।३।४४१ २ (क) भगवतीसूत्र १६, १२।७, ७।१, २।१ (ख) स च अनादि-निधनः न केनाऽपि पुरुष विशेषेणकृतो, न हतो"। -बृहद्रव्यसंग्रह वृत्ति, गा० २०, पृ० ५१ ३ (क) सूत्रकृतांगसूत्र श्रु० १, अ० १, उ० ३, गा० ६४-६६ (क्रमश:)
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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