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लोकवाद : एक समीक्षा | १३५
हाथ-पैरों, दांता आदि से एक दूसरे को क्षत-विक्षत कर डालते हैं । उनका शरीर वैक्रिय होता है । वह पारे के समान पूर्ववत् जुड़ जाता है । नारकों की अकाल मृत्यु नहीं होती । जिसका जितना आयुष्य है, उसे पूरा करके ही वे इस शरीर से छुटकारा पा सकते हैं ।
संक्षेप में इस प्रकार की क्षेत्रलोक की दृष्टि से तीनों लोकों की रचना है ।
अलोकाकाश- इस लोक की सीमा के चारों ओर असीम अलोका
काललोक
काश है ।
विश्व : काल की दृष्टि से
यह पहले बताया जा चुका है विश्व (लोक) द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से शाश्वत है, किन्तु पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से यह परिवर्तनशील होने के कारण अशाश्वत भी है । क्योंकि विश्व षड्द्रव्यात्मक माना गया है, षड्द्रव्यों में होने वाले परिणमन से विश्व को अशाश्वत भी मानना चाहिए । इसी कारण यह परिणामी नित्य माना गया है ।
तात्पर्य यह है कि विश्व षड्द्रव्यों का समूहमात्र है । अतः विश्व की शाश्वतता- अशाश्वतता को समझने के लिए षड्द्रव्यों की शाश्वतताअशाश्वतता का विश्लेषण समझना आवश्यक है। छहों ही द्रव्य कब, कैसे किससे अस्तित्व में आए ? इन प्रश्नों का समाधान 'अनादि' अस्तित्व के मानने से ही हो सकता है । जो दार्शनिक द्रव्यों को 'सादि' मानते हैं, उनके लिए ये (पूर्वोक्त प्रश्नात्मक ) समस्याएँ बनी रहती हैं । किन्तु जो द्रव्यों के अस्तित्व को अनादि मानते हैं, उनके लिए ये प्रश्न उठते ही नहीं । फिर द्रव्यों के अस्तित्व को सादि मानने पर असत् से सत् की उत्पत्ति माननी पड़ती है, जो कार्यकारणवाद' के साथ संगत नहीं होती, क्योंकि उपादानकारण यदि असत् होता है तो कार्य सत् नहीं हो सकता । इसीलिए उपादान को मर्यादा को स्वीकार करने वाले असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं मानते । अतः द्रव्यों का अस्तित्व अनादि सिद्ध हो जाता है । "
यद्यपि षद्रव्यों में से धर्म, अधर्म, आकाश और काल, इन चार द्रव्यों में स्वाभाविक परिणमन होता रहता है । इस परिणमन के कारण ही ये द्रव्य शाश्वतकाल तक अपने अस्तित्व को बनाए रखते हैं । अतः परिणामी
१ जैनदर्शन के मौलिक तत्त्व अ० १, पृ० ४१८
२ वही भाग २, पृ० ८१