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१३४ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका लाख नारकावास हैं । दूसरी नरक पृथ्वी की मोटाई १,३२००० योजन है । तीसरी नरकपृथ्वी की मोटाई १,२८००० योजन है। चतुर्थ नरकभूमि की मोटाई १,२०००० योजन है। पांचवीं नरक भूमि की मोटाई १,१८००० योजन है, छठी नरकभूमि की मोटाई १,१६००० योजन है और सातवीं नरकपृथ्वी की मोटाई १,०८००० योजन है। सातों नरकों के नीचे जो घनोदधि है, उसकी मोटाई भी विभिन्न प्रमाणों में है।'
रत्नप्रभा आदि की जितनी-जितनी मोटाई बताई गई है, उस-उस के ऊपर और नीचे के एक-एक हजार योजन छोड़कर शेष भाग में नारकावास हैं।
_इन सातों नरकभूमियों में रहने वाले जीव नारक कहलाते हैं। ज्योंज्यों नीचे की नरकंभूमियों में जाते हैं, त्यों-त्यों नारक जीवों में कुरूपता, भयंकरता, बेडौलपन आदि विकार बढ़ते जाते हैं।
नरकभूमियों में तीन प्रकार की वेदनाएँ प्रधानरूप से नारकों को होती हैं—(१) परमाधार्मिक असुरों (नरकपालों) द्वारा दी जाने वाली वेदनाएँ, (२) क्षेत्रकृत-अर्थात्--नरक की भूमियाँ अत्यन्त खून और रस्सी से लथपथ कीचड़ वाली अत्यन्त ठण्डी या अत्यन्त गर्म होती है, इत्यादि कारणों से होने वाली वेदनाएँ । (३) नारकी जीवों द्वारा परस्पर एक दूसरे को पहुँचाई जाने वाली वेदनाएँ।
परमाधार्मिक असुर (देव) तीसरे नरक तक ही जाते हैं। उनका स्वभाव अत्यन्त क्रूर होता है । वे सदैव पापकर्म में रत रहते हैं, दूसरों को कष्ट देने में उन्हें आनन्दानुभव होता है। नारकों को वे अत्यन्त कष्ट देते हैं। वे उन्हें गर्मागर्म शीशा पिलाते हैं, गाड़ियों में जोतते हैं, अतिभार लादते हैं, गर्म लोहस्तम्भ का स्पर्श करवाते हैं और कांटेदार झाड़ियों पर चढ़ने-उतरने को बाध्य करते हैं। .
____ आगे की चार नरकभूमियों में दो ही प्रकार की वेदनाएँ होती हैं। परन्तु पहली से सातवीं नरकभूमि तक उत्तरोत्तर अधिकाधिक वेदना होती है। वे मन ही मन संक्लेश पाते रहते हैं। एक दूसरे को देखते हो उनमें क्रोधाग्नि भड़क उठती है। पूर्वजीवन के वैर का स्मरण करके एक दूसरे पर करतापूर्वक झपट पड़ते हैं। वे अपने ही द्वारा बनाये हुए शस्त्रास्त्रों, या
१ सर्वार्थसिद्धि ३।१ २ नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेह वेदना विक्रियाः । परस्परोदीरितदुःखः । संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ।
-तत्त्वार्थ ० ३।३-४-५