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१३२ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका
ओर विस्तृत लवणसमुद्र में हिमवान् पर्वत की दाढ़ाओं पर अट्ठाइस अन्तरद्वीप है; जो सात चतुष्कों में विद्यमान हैं । इनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं
प्रथम चतुष्क - एकोरुक, आभाषिक, लांगूलिक, वैमाणिक । द्वितीय चतुष्क— हयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण और शष्कुलीकर्ण । तृतीय चतुष्क - आदर्शमुख, मेषमुख, हयमुख और गजमुख । चतुर्थ चतुष्क - अश्वमुख, हस्तिमुख, सिंहमुख और व्याघ्रमुख | पंचम चतुष्क - अश्वकर्ण, सिंहकर्ण, गजकर्ण और कर्णप्रावरण | षष्ठ चतुष्क - उल्कामुख विद्यन्मुख, जिह्वामुख और मेघमुख । सप्तम चतुष्क - घनदन्त, गूढ़दन्त, श्रेष्ठदन्त और शुद्धदन्त । इसी प्रकार शिखरीपर्वत की दाढ़ाओं पर भी इन्हीं नाम के २८ अन्तरद्वीप हैं । यो सब मिलाकर ५६ अन्तरद्वीप होते हैं । इन अन्तरद्वीपों में मनुष्यों
नवास है ।
आधुनिक विज्ञान ने जितने भूखण्ड का अन्वेषण किया है, वह तो केवल कर्मभूमि के जम्बूद्वीपस्थित भरतक्षेत्र का छोटा-सा ही भाग है । मध्यलोक तो अकर्मभूमिक और अन्तरद्वीप के क्षेत्रों को मिलाने पर बहुत ही विशाल है, फिर भी ऊर्ध्वलोक और अधोलोक की अपेक्षा इसका क्षेत्रफल अत्यल्प ही माना जायगा
ज्योतिष्क देवलोक - मध्यलोकवर्ती जम्बूद्वीप के सुदर्शनमेरु के समीप की समतल भूमि से ७६० योजन ऊपर तारामण्डल है, जहाँ आधा कोस लम्बेचौड़े और पाव कोस ऊँचे तारा विमान हैं ।
तारामण्डल से १० योजन पर ऊपर एक योजन के ६१ भाग में से ४८ भाग लम्बा-चौड़ा और २४ भाग ऊँचा, अंकरत्नमय सूर्यदेव का
विमान है ।
सूर्यदेव के विमान से ८० योजन ऊपर एक योजन के ६१ भाग में से ५६ भाग लम्बा-चौड़ा और २८ भाग ऊँचा, स्फटिकरत्नमय चन्द्रमा का विमान है ।
चन्द्रविमान से ४ योजन ऊपर नक्षत्र माला है । इनके रत्नमय पंचरंगे विमान एक- एक कोस के लम्बे-चौड़े और आधे कोस के ऊँचे हैं ।
नक्षत्रमाला से ४ योजन ऊपर ग्रहमाला है । ग्रहों के विमान पंचवर्णी रत्नमय हैं । ये दो कोस लम्बे-चौड़े और एक कोस ऊँचे हैं ।