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________________ १३० | जैम तत्त्वकलिका : छठी कलिका देव चार प्रकार के होते हैं- भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक | इस ऊर्ध्वलोक में कल्पोपपन्न और कल्पातीत, यों दो प्रकार के वैमानिकदेव ही रहते हैं। जिन देवलोकों में इन्द्र, सामानिक आदि पद होते हैं वे कल्प के नाम से प्रसिद्ध हैं । कल्पों (बारह देवलोकों) में उत्पन्न देव कल्पोपपन्न कहलाते हैं, और कल्पों (बारह देवलोकों) से ऊपर के (नौ ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर विमानवर्ती) देव कल्पातीत कहलाते हैं । कल्पातीत देवों में किसी प्रकार की असमानता नहीं होती । वे सभी इन्द्रवत् होने से अहमिन्द्र कहलाते हैं । किसी कारणवश मनुष्यलोक में आने का प्रसंग उपस्थित होने पर कल्पोपपन्न देव ही आते हैं, कल्पातीत नहीं । अन्तिम देवलोक का नाम सर्वार्थसिद्ध है । इससे बारह योजन ऊपर सिद्धशिला है; जो ४५ लाख योजन लम्बी और इतनी ही चौड़ी है । इसकी परिधि कुछ अधिक तीन गुनी है । मध्यभाग इसकी मोटाई आठ योजन है, जो क्रमशः किनारों की ओर पतली होती हुई अन्त में मक्खी की पांख से भी अधिक पतली हो गई है। इसका आकार खोले हुए छत्र के समान है। शंख, अंकरत्न और कुन्दपुष्प के समान स्वभावतः श्वेत, निर्मल, कल्याणकर एवं स्वर्णमयी होने से इसे 'सीता' भी कहते हैं । 'ईषत् प्राग्भारा' नाम से भी यह प्रसिद्ध है । इससे एक योजन प्रमाण ऊपर वाले क्षेत्र को 'लोकान्तभाग' भी कहते हैं । उत्तराध्ययन में इस लोकान्त को 'लोकाग्र' भी कहा है; क्योंकि वह लोक का अन्त या सिरा है, इसके पश्चात् लोक की सीमा समाप्त हो जाती है । इस योजन प्रमाण लोकान्त भाग के ऊपरी कोस के छठे भाग में मुक्त (सिद्ध) आत्माओं का निवास है । मध्यलोक का परिचय मध्यलोक को तिर्यक्लोक या मनुष्यलोक भी कहा है । यह १८०० योजन प्रमाण है । इस लोक के मध्य में जंबूद्वीप है और उसे घेरे हुए असंख्यात द्वीप- समुद्र हैं । ये सभी परस्पर एक दूसरे को वलय (चूड़ी) के आकार में घेरे हुए हैं । इनमें प्रायः पशुओं और वाणव्यन्तर देवों के स्थान हैं । इतने विशाल क्षेत्र में केवल अढाई द्वीपों में ही मनुष्यों का निवास है । मनुष्यों के साथ-साथ तिर्यञ्चों का भी इसमें निवास है । अढाई द्वीप को 'समयक्षेत्र' भी उत्तराध्ययन, ३६।५६ से ६२ तक २ उत्तराध्ययन ३६।५०, ५४ ३ ' प्राङ, मानुषोत्तरान्मनुष्याः ' — तत्त्वार्थ० ३।३५
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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