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लोकवाद : एक समीक्षा | १२६
मान लो, एक देव मेरुपर्वत की चूलिका पर खड़ा है; जो एक लाख योजन की ऊँचाई पर है । नीचे चारों दिशाओं में चार दिक्कुमारियाँ हाथ में afaforड लिए खड़ी हैं । वे बहिर्मुखी होकर एक साथ उस बलिपिण्ड को फेंकती हैं। देव उन चारों बलिपिण्डों को पृथ्वी पर गिरने से पूर्व ही हाथ से पकड़ लेता है, और तत्काल दौड़ता है । ऐसी दिव्य शीघ्रगति से लोक का अन्त पाने के लिए ६ देव पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊँची और नीची इन छहों दिशाओं में चले । ठीक इसी समय एक श्रेष्ठी के घर में एक हजार वर्ष की आयु वाला पुत्र पैदा हुआ । उसकी आयु समाप्त हुई । उसके पश्चात् हजार वर्ष की आयु वाले उसके बेटे पोते हुए । इस प्रकार की परम्परा से सात पीढ़ियाँ समाप्त हो गई हैं । उनके नाम गोत्र भी मिट गए । तथापि वे देव तब तक चलते रहे फिर भी लोक का अन्त न पा सके । यह ठीक है कि उन शीघ्रगामी देवों ने लोक का अधिक भाग तय कर लिया, परन्तु जो भाग शेष रहा, वह असंख्यातवाँ भाग है । इससे यह समझा जा सकता है कि लोक का आयतन कितना बड़ा है ।'
प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने लोक का व्यास एक करोड़ अस्सी लाख प्रकाश वर्ष माना है । "
लोक के आयतन को पूर्वोक्त रूपक द्वारा समझने के पश्चात् भी गौतम स्वामी की जिज्ञासा पूर्ण रूप से शान्त न हुई । 'भन्ते ! यह लोक कितना बड़ा है ?' गौतम स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने कहा - ' गौतम ! यह लोक बहुत बड़ा है । यह पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण तथा ऊर्ध्व और अधो दिशाओं में असंख्यात योजन कोटाकोटी लम्बा चौड़ा है।
ऊर्ध्वलोक-परिचय
मध्यलोक से ६०० योजन ऊपर का भाग ऊर्ध्वलोक कहलाता है । उसमें देवों का निवास है । इसलिए उसे देवलोक या स्वर्गलोक कहते हैं ।
१ भगवतीसूत्र १२।१० । ४२१ वृत्ति.
२ एक प्रकाशवर्ष उस दूरी को कहते हैं, जो प्रकाश की किरण १८६००० मील प्रति सैकण्ड के हिसाब से चलकर एक वर्ष में तय करती है । -संपादक
३ के महालए णं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! महति महालए लोए पण्णत्ते, पुरत्थिमेणं असंखेज्जाओ जोयण कोडाकोडीओ, दाहिणेणं असंखिज्जाओ एवं पच्चत्थिमेण वि एवं उत्तरेण वि एवं उड्ढपि, अहे असंखेज्जाओ जोयण कोड कोडीओ आयामविखंभेणं । - भगवतीसूत्र, १२७४५७