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१२८ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका
महान् वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टीन ने भी क्षेत्र- लोक की सीमा इसी से मिलती-जुलती मानी है - "लोक परिमित है । लोक के परे अलोक अपरिमित है । लोक के परिमित होने का कारण यह है कि द्रव्य अथवा शक्ति लोक के बाहर जा नहीं सकती। लोक के बाहर उस शक्ति का अभाव है, जो गति में सहायक होती है ।" लोक का संस्थान (आकार)
लोक का आकार सुप्रतिष्ठक - - संस्थान बताया है । अर्थात् -- वह नीचे विस्तृत, मध्य में संकीर्ण और ऊपर मृदंगाकार है । तीन शरावों (सकोरों) में से एक शराव औंधा रखा जाए, दूसरा सीधा और तीसरा उसी के ऊपर औंधा रखा जाए तो जो आकृति बनती है, वही आकृति (त्रिशराव सम्पुटाकृति) लोक की है । अलोक का आकार मध्य में पोल वाले गोले के जैसा है । '
अलोक का कोई भी विभाग नहीं है, वह एकाकार है । लोकाकाश तीन भागों में विभक्त है-- ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक । तीनों लोकों की कुल लम्बाई ९४ रज्जू है; जिसमें से सात रज्जू से कुछ कम ऊर्ध्वलोक है, मध्यलोक १८०० योजनपरिमाण है, और अधोलोक सात रज्जू से कुछ अधिक है ।
लोक को इन तीन विभागों में विभक्त कर देने के कारण उन तीनों की पृथक्-पृथक् आकृतियाँ बनती हैं। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय कहीं पर फैले हुए और कहीं संकुचित हैं । ऊर्ध्वलोक में धर्म-अधर्मास्तिकाय विस्तृत हो चले गए हैं । इस कारण ऊर्ध्वलोक का आकार मृदंग-सदृश है; और मध्यलोक में वे कृश हैं, इसलिए उसका आकार, बिना किनारी वाली झालर के समान है । नीचे की ओर फिर वे विस्तृत होते चले गए हैं । इसलिए अधोलोक का आकार औंधे शराव के जैसा बनता है । यह लोकाकाश की ऊँचाई हुई । उसकी मोटाई सात रज्जू की है ।
लोक कितना बड़ा है ?
लोक की मोटाई भगवान् महावीर ने एक रूपक द्वारा समझाई है
१ किं संठिए णं भंते लोए पण्णत्तं ? गोयमा ! सुपइट्ठगसंठिए लोए पण्णत्ते तंजहाट्ठाविच्छिन्न, उप्पिमज्झे संक्खिविसाले, अहे पलियंकसंठिए मज्झे वरवरि विग्गहिते, उप्पि उद्धमुइंगाकार संठिए ।...... - भगवती० ७।१।२६०
२ भगवतीसूत्र ११।१०
३ भगवतीसूत्र ११ । १