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________________ लोकवाद : एक समीक्षा | १२७ सिर्फ आकाश हो आकाश है । धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीवद्रव्य का वहाँ अभाव है। लोक-अलोक की सीमा _____ लोक और अलोक की सीमा निर्धारण करने वाले स्थिर शाश्वत और व्यापक दो तत्त्व हैं-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय। ये अखण्ड आकाश को दो भागों में विभाजित करते हैं। ये दोनों जहाँ तक हैं वहाँ तक लोक है, और जहाँ इन दोनों का अभाव है, वहाँ अलोक है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के अभाव में जीबों और पुद्गलों को गति और स्थिति में सहायता नहीं मिलती। इसलिए जीव और पुद्गल लोक में हैं, अलोक में नहीं। लोक-अलोक का परिमाण जैनदृष्टि से लोक ससीम है और अलोक असीम है। लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं, और अलोकाकाश के अनन्त प्रदेश। . लोक की सीमा के सम्बन्ध में विविध दार्शनिकों और पौराणिकों के निश्चित एवं यथार्थ उतर नहीं मिलते। गीताकार कहते हैं--'ब्रह्मलोक तक लोक हैं।' इसी प्रकार पौराणिकों ने भी लोक की कुछ सीमाएँ बताई हैं। भगवतीसूत्र में आर्यस्कन्दक के द्वारा लोक की सीमा के सम्बन्ध में पूछे जाने पर भगवान महावीर ने कहा-लोक, द्रव्य की अपेक्षा से सान्त है, क्योंकि वह संख्या से एक है। क्षेत्र की दृष्टि से भी लोक सान्त है, क्योंकि सकल आकाश में से कुछ ही भाग लोक है और वह भी सीमित है, क्योंकि धर्म-अधर्म जो गति-स्थिति में सहायक हैं, वे लोकप्रमाण ही हैं, आगे नहीं। लोक की परिधि असंख्य योजन-कोडाकोडी की है, इसलिए क्षेत्र लोक भी सान्त है। काल की दृष्टि से लोक अनन्त है, क्योंकि ऐसा कोई काल नहीं, जिसमें लोक का अस्तित्व न हो। लोक पहले था, वर्तमान में है, और भविष्य में भी सदा रहेगा। इसलिए काललोक भी अनन्त है। इसी प्रकार भाव अर्थात्-पर्यायों की दृष्टि से लोक अनन्त है, क्योंकि लोकद्रव्य की पर्यायें--लोक में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की पर्याय अनन्त हैं तथा बादर स्कन्धों की गुरुलघुपर्यायें, सूक्ष्म स्कन्धों और अमूत्त द्रव्यों की अगुरुलघु पर्यायें भी अनन्त हैं । इसलिए भाव-लोक भी अनन्त है।' १ आब्रह्म भुवनाल्लोकाः । - भगवद्गीता अ. ८, श्लो. १६ २ भगवतीसूत्र २।१।६०
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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