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१२६ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका
इसे हम चतुष्पात्मक विश्वसिद्धान्त कह सकते हैं । द्रव्यलोक क्या है ? कितने प्रकार है ? द्रव्यलोक में हमारा क्या और कितना स्थान एवं दायित्व है ? इस विषय में विस्तृत चर्चा हम 'अस्तिकाय धर्म' के सन्दर्भ में करेंगे । यहाँ क्षेत्रलोक और काललोक के सम्बन्ध में प्रतिपादन करेंगे । क्योंकि लोक-सम्बन्धी जितनी भी चर्चाएँ विभिन्न दार्शनिकों, पौराणिकों या धर्मप्रवर्तकों द्वारा हुई हैं, वे प्रायः क्षेत्रलोक और काललोक के सम्बन्ध में हुई हैं ।
क्षेत्रलोक और काललोक
क्षेत्रलोक से तात्पर्य है— लोक कितने क्षेत्र या प्रदेश को घेरे हुए है ? कहाँ से कहाँ तक लोकक्षेत्र की सीमा है ? यह लोक किस पर टिका हुआ है ? क्षेत्रलोक को किसी ने बनाया है, अथवा कोई उसका स्रष्टा, विधाता, धर्ता हर्ता है ? या यह स्वाभाविक ही है ? काललोक से मतलब है - इस लोक की काल सीमा कितनी है ? कब से कब तक रहेगा ? लोक का आदि
है या नहीं ?
हम वीतरागप्ररूपित शास्त्र की दृष्टि से इन प्रश्नों पर क्रमशः चर्चा करेंगे |
प्रायः सभी धर्मों और दर्शनों ने लोक के सम्बन्ध में चर्चा की हैं । नास्तिकों ने केवल इस प्रत्यक्ष दृश्यमान लोक को ही माना है, 1 ऊर्ध्वलोक और अधोलोक को नहीं । परन्तु वैदिक और पौराणिक लोगों ने तीन लोक माने हैं। हम जहाँ रहते हैं, वह मध्यलोक है, उससे ऊपर ऊर्ध्वलोक है और नीचे अधोलोक है ।
द्रव्यलोक की दृष्टि से जैनदर्शनसम्मत लोक की दो परिभाषाएँ, मिलती हैं - ( १ ) जहाँ धर्मास्तिकाय आदि छह द्रव्यों की सहस्थिति हो, और (२) जहाँ जीव और अजीव की सहस्थिति हो । "
एक बात निश्चित है कि लोक अलोक के बिना हो नहीं सकता, इसलिए अलोक भी है । अलोक से हमारा कोई लगाव नहीं; क्योंकि वह
- चार्वाकदर्शन
१ 'एतावानेव लोकोऽयं यावान इन्द्रियगोचरः ।' २ (क) धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवो । एस लोगोत्तिपन्नत्तो जिणेहिं वरदं विहिं ॥ (ख) जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए । अजीवदेसमागासे अलोगे से वियाहिए ||
- उत्तरा० २८।७
उत्तरा० ३६।२