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________________ लोकवाद : एक समीक्षा | १२५ लोक का यथार्थ ज्ञान आत्मा से सम्बन्धित है, क्योंकि लोकस्थित जीव और अजीव के गुण-धर्मों को जान लेने पर ही मुमुक्ष आत्मा सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र का यथार्थ आचरण एवं व्यवहार कर सकता है। लोक क्या है ? ___आम जनता में प्रचलित 'विश्व' या 'जगत्' के लिए जैनदर्शन में 'लोक' शब्द प्रयुक्त हुआ है। लोक का व्युत्पत्तिजनक अर्थ है-- 'जो अवलोकन किया- देखा जाता है, वह लोक है।" किन्तु यह लोक की बहुत ही स्थूल परिभाषा है। श्रमण भगवान महावीर के युग में लोक के सम्बन्ध में पूर्वोक्त प्रश्नों पर गहराई से चर्चा चलती थी। विभिन्न दर्शनों और धर्मों के प्रवत्तकों ने इन प्रश्नों का समाधान विविध रूप से किया है। आधुनिक विज्ञान भी इन तथ्यों की खोज में सतत प्रयत्नशील है। तथागत बुद्ध लोक सम्बन्धी इन प्रश्नों को अव्याकृत कहकर टालने का प्रयास करते थे, परन्तु भगवान् महावीर ने लोकवाद को आस्तिकता की आधारशिला तथा श्रुतधर्म का अंग मानकर लोक सम्बन्धी सभी प्रश्नों का यथार्थ समाधान किया है। भगवान् महावीर से उनके पट्टधर शिष्य गणधर गौतम ने जब पूछा कि 'भंते ! लोक किस प्रकार का है ?' तब उन्होंने विभिन्न अपेक्षाओं से लोक के सम्बन्ध में समाधान दिया-'गौतम ! लोक चार प्रकार का बताया गया है-(१) द्रव्यलोक, (२) क्षेत्रलोक, (३) काललोक और (४) भावलोक ।' fic १ जे लोक्कइ से लोए – 'लोक्यते-विलोक्यते प्रमाणेन स लोको, लोकशब्दवाच्यो भवतीति ।' -भगवतीसूत्र मूलवृत्ति श० ५, अ. ६, सू. २२५ तथागत बुद्ध ने १० प्रश्नों को अव्याकृत कहा- (१) लोक शाश्वत है ? (२) अलोक अशाश्वत है ? (३) लोक अन्तवान है ? (४) लोक अनन्त है ? (५) जीव और शरोर एक है ? (६) जीव और शरीर भिन्न है ? (७) मरने के बाद तथागत होते हैं ? (८) मरने के बाद तथागत नहीं होते ? (8) मरने के बाद तथागत होते भी हैं और नही भी होते ? (१०) मरने के बाद तथागत न होते हैं, और न नहीं होते ? -मज्झिमनिकाय, चूलमालुक्यसुत्त ६३ (क) कतिविहे णं भंते लोए पप्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे लोए पण्णते तंजहा-दव्वलोए, खेत्तलोए, काललोए, भावलोए। - भगवतीसूत्र ११।१०।४२० (ख) प्रस्तूयतेऽथ प्रकृतं स्वरूपं लोकगोचरं । द्रव्यतः क्षेत्रतः कालभावतस्तच्चतुर्विधम् ।। -लोकप्रकाश २।२ ३
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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