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लोकवाद : एक समीक्षा
जो आत्मवादी होता है, वह लोक-परलोक को अर्थात्-स्वर्ग, नरक तथा तिर्यञ्च और मनुष्यलोक को तो मानता ही है, परन्तु इसके अतिरिक्त वह लोक की संस्थिति, लोक में रहे हुए द्रव्यों के प्रति अपना दृष्टिकोण, अपना धर्म, आत्मगुणों वृद्धि के लिए लोक' का अवलम्बन लेने की मर्यादा, त्याग, तप इत्यादि बातों का भी गहराई से बिचार करता है। साथ ही लोकवादी यह भी विचार करता है कि नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य या देवलोक में उत्पन्न होने, जन्म-मरण करने के क्या-क्या कारण हैं ? मुझे अपने जीवन में कौन-से कार्य करने चाहिए, जिन से मुझे लोकगत गमनागमन से छुटकारा मिले, लोकावलम्बन न लेना पड़े, तथा जिस-जिस लोक के प्राणियों से मुझे सहयोग लेना पड़ा है, या पड़ता है, उनके उक्त ऋण से मुक्त होने के लिए क्या करना चाहिए ? इत्यादि समग्र चिन्तन करके लोकवादी तदनुरूप अपना आचार-विचार या व्यवहार करता है।
इसी सन्दर्भ में लोक से सम्बन्धित यथार्थ जानकारी भी आवश्यक है कि यह लोक, जो हमें इन्द्रियों से प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है, इतना ही है ? या इसके ऊपर-नीचे भी कुछ है ? अथवा इसके आगे भी कुछ है ? लोक की सीमा कहाँ से कहाँ तक है ? उसका आदि-अन्त है या नहीं ? है तो कब से, कब तक है ? यह लोक किस पर व्यवस्थित है ? इसके मूल में क्या है ? इस लोक का कोई कर्ता-धर्ता-संहर्ता है या नहीं ? इसका संस्थापक-व्यवस्थापक कोई है या नहीं? इसका विकास कैसे हआ? इस लोक में कौन-कौन से मुख्य द्रव्य हैं ? वे क्या-क्या कार्य करते हैं ? इस लोक से भिन्न कोई दूसरा लोक भी है या नहीं ? इत्यादि अनेकों प्रश्न हैं, जिनको यथावस्थित रूप से जानना आवश्यक है।
१ 'धम्मस्स णं चरमाणस्स पंचठाणा निस्सिया पण्णत्ता, तं जहा---छकाया, गणे, राया,
गाहावाई, सरीरं ।'-धर्माचरण करने वालों को पांच वस्तुओं का आलम्बन लेना पड़ता है, वे इस प्रकार-षटकाय, गण, राजा (शासक), गृहपति और शरीर।
__ -- स्था० स्थान ५