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प्रस्तावना | ३५
सुशिष्य प्रवचन-भूषण, हरियानाकेसरी श्री अमरमुनि जी ने बड़ी कुशलता के साथ किया है । प्रमुख साहित्यसेवी, सम्पादन कलानिष्णात श्री श्रीचन्द जी सुराणा 'सरस' ग्रन्थ के सह-सम्पादक हैं । यह मणि-कांचन जैसा सुन्दर योग है। इन मनीषियों के कौशलपूर्ण श्रम से ग्रन्थ अधुनातन शैली व साज-सज्जा के साथ बहुत सुन्दर रूप में तैयार हुआ, यह अत्यन्त हर्ष का विषय है।
एक महान् आचार्य की महनीय कृति को जिस महनीयता के साथ प्रस्तुत किया जाना चाहिए, इन्होंने सफलतापूर्वक वैसा किया है। मैं इन्हें तथा समादरणीय भण्डारी श्री पदमचन्दजी महाराज को, जिनकी इस कार्य के मूल में सजग प्रेरणा रही, हृदय से साधुवाद ज्ञापित करता हूँ।
जैसा यथाप्रसंग इंगित किया गया है, ग्रन्थ के परिशीलन तथा पर्यवलोकन से यह स्पष्ट है, जैन धर्म तथा दर्शन से सम्बद्ध प्रायः सभी प्रमुख विषय इसमें अत्यन्त प्रामाणिक, शास्त्रीय तथा युति युक्त रूप में व्याख्यात हुए हैं। अन्यान्य दर्शनों में उन उन विषयों पर हुए निरूपण के साथ जो तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक विवेचन किया गया है, वह गहरी तलस्पशिता और सूक्ष्मता लिये हुए हैं । यह बहुत ही प्रशस्त लगा, तुलना तथा समीक्षा में तत्तद् ग्रन्थों के उद्धरण इसमें यथावत् रूप में उपस्थापित किये गये हैं । ग्रन्थगत विशद सामग्री को देखते हुए मेर। ऐसा विश्वास है, जिज्ञासु वृन्द को . इस एक ही ग्रन्थ के परिशीलन से जैनधर्म, दर्शन, साधना-पद्धति आदि सभी विषयों का यथेष्ट ज्ञान प्राप्त हो सकेगा।
तात्त्विक विषयों के मूलग्राही एवं अनुसन्धान परक विश्लेषण के कारण मैं समझता हूँ, प्रस्तुत ग्रन्थ जैन दर्शन के गहन अध्येताओं तथा अनुसन्धित्सुओं के अध्ययन व अनुसन्धान में भी विशेष सहायक सिद्ध होगा।
आशा है, आत्मोन्नयन के अभिलाषी, सत्यगवेषी पाठक प्रस्तुत कृति से लाभान्वित होंगे। जैन स्थानक,
-युवाचार्य मधुकरमुनि मदनगंज-किशनगढ़ (राजस्थान) २ अक्टूबर गाँधी जयन्ती सन् १९८२