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________________ ३४ | प्रस्तावना एवं तपश्चरणमूलक साधना में निरत रहते हैं, जन जन को उस ओर उत्प्रेरित करते हैं, व्रतमय पवित्र जीवन की उन्हें प्रेरणा देते हैं। वे महान उपकारी हैं, तत्सम्बद्ध सभी विषयों पर इस कलिका में प्रकाश डाला गया है। . आचार्य, उपाध्याय तथा साधु के विशेष गुण, गरिमा, साधना व्यक्तित्व आदि का इसमें विशद विवेचन हुआ है। तृतीय कलिका में ग्रन्थकार ने धर्म का विवेचन किया है। दशविध धर्म, धर्म की व्युत्पत्ति, धर्म के शुद्धत्व की कसौटी, धर्म का स्वरूप, धर्म का फल, धर्म की आवश्यकता, धर्म की उपादेयता, धर्म की प्राप्ति, धर्म की शक्ति, धर्म का परिपालन, तदर्थ आदि पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है । ___ चतुर्थ कलिका में श्रुत-धर्म के सन्दर्भ में सम्यक्ज्ञान का विवेचन है । श्रुत धर्म का स्वरूप, सम्यक्श्रुत, मिथ्याश्रुत, मतिज्ञान, श्रु तज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्याय ज्ञान, उनके भेद, केवलज्ञान, तथा सम्यकज्ञान सम्बद्ध अन्याय विषयों का इसमें मामिक विश्लेषण हैं। पंचम कलिका में श्रुत-धर्म के सन्दर्भ में सम्यकदर्शन का बहुमुखी विवेचन है । ग्रन्थकार ने तदन्तर्गत जीव, अजीव पुण्य, पाप, आस्रव, सम्बर, निर्जरा बन्ध, मोक्षरूप नौ तत्वों की विस्तृत व्याख्या की है। छठी कलिका में ग्रन्थकार ने सम्यक्दर्शन के सन्दर्भ में आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद, क्रियावाद का वर्णन किया हैं । इस प्रसंग में आत्मा के स्वरूप पर समीक्षात्मक दृष्टि से जो विशद विवेचन किया गया है, वह बड़ा हृदयग्राही है । कर्मवाद का भी अत्यन्त गहन तथा सूक्ष्म विवेचन यहाँ हुआ है । इसी प्रकार लोकवाद आदि का भी सागोपांग विश्लेषण किया है। सप्तम कलिका में अस्तिकाय-धर्म का वर्णन है। इसके अन्तर्गत षडद्रव्यात्मक विश्व, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय तथा जीवास्तिकाय का स्वरूप, कार्य, काल का स्वरूप, तत्सम्बन्धी मान्यताएँ इत्यादि विषय बड़े सुन्दर रूप में व्याख्यात हुए हैं। ___ अष्टम कलिका में चारित्र धर्म के सन्दर्भ में गृहस्थ-धर्म का स्वरूप वर्णित हुआ है । उसके अन्तर्गत आगार-चारित्रधर्म, गृहस्थ धर्म के सामान्य सूत्र-आदर्शचर्या सम्यक्त्व, पाँच अणुव्रत, तीन गुण व्रत, चार शिक्षाव्रत इत्यादि गृहस्थोपयोगी विषयों का विशद विवेचन किया गया है । नवम कलिका में सम्यक् ज्ञान के सन्दर्भ में प्रमाण-नय स्वरूप का वर्णन किया गया है । इसके अन्तर्गत प्रमाण के भेद-प्रभेद, नयवाद, नय के प्रकार, प्रभृति विषयों का विशद विवेचन है। प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्पादन हमारी वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसंघीय परम्परा के उबुद्धचेता, परमसेवाभावी सन्त भण्डारी श्री पदमचन्दजी महाराज के
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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