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प्रस्तावना | ३३
जिज्ञासुजन उससे अत्यधिक लाभान्वित हुए । उसी ग्रन्थ का यह संशोधित, परिष्कृत, सुसंपादित द्वितीय संस्करण पाठकों के समक्ष है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ नौ कलिकाओं में विभक्त है, जिनका विवरण इस प्रकार हैप्रथम कलिका में आर्हतपरम्पराभिमत आराध्यदेवों का विवेचन है । इसके अन्तर्गत अर्हत् अरिहंत भगवान् तथा सिद्ध भगवान् का विस्तार से वर्णन किया गया है ।
अरिहंत राग-द्वेष-विजेता होते हैं, सर्वज्ञ होते हैं, उन सभी आन्तरिक दुर्बलताओं से वे अतीत होते हैं, जो आत्मा की अनन्त शक्तिमयता तथा आनन्दमयता आदि को व्याहत करती हैं। उन्हें वर्तमान, भूत, भविष्य साक्षात प्रतीयमान होते हैं । इसीलिए जो भी वे आख्यात करते हैं, वह साक्षात् दृष्ट, साक्षात् अनुभूत, सर्वथा निबंध होता । उन्हीं द्वारा प्रदत्त धर्मदेशना से सत्तत्व का उजागरण तथा संप्रमारण होता हैं । उनसे आगे सिद्धत्व प्राप्ति की भूमिका है, जहाँ जीवन का साध्य सम्पूर्णतः सध जाता है, कार्मिक आवरण निःशेष हो जाते हैं, जो करणीय था, वह कृत बन जाता है। जैन धर्म के अनुसार अर्हत् तथा सिद्ध ही पूज्य एवं उपास्य हैं। जीवन की दिव्यता, परमपवित्रता, परमशुद्धता उनमें होती है । वे प्रेरणापुञ्ज होते हैं । उनकी पर्युपासना से प्रार्थना से जीवन में अन्तःस्फुरणा तथा धर्मोत्साह का पवित्र भाव जागरित होता है। उनका मूर्तीमूर्त व्यत्तित्व इतना प्रभावक, सात्विक एवं अध्यात्मज्योत्स्नामय होता है कि भावनापूर्वक उनका स्मरण करने से मनःस्थिति में पवित्रता, शुद्धता का संचार होता है । प्रथम कलिका में आचार्यवर ने अहं का स्वरूप, उनका वैशिष्ट्य, उन द्वारा आख्यात धर्मदेशना से अनुप्राणित संस्कृति, अहंत् पद प्राप्ति का समुद्यम, साधना सिद्ध का स्वरूप, उनके भेद वैशिष्ट्य आदि पर विस्तार प्रकाश डाला है ।
वस्तुतः अर्हत् और सिद्ध स्वयं किसी को कोई वरदान या सिद्धि नहीं देते। उनकी बाह्य तथा आन्तरिक सन्निधि, संस्मृति, भक्ति से चित्त का परिष्कार, अशुभ भावों का शमन, शुभ भावों का उद्गम आदि साधक के सहज ही सध जाते हैं- इत्यादि विषयों पर बड़ा मार्मिक विश्लेषण इस कलिका में रूप में ईश्वरकतत्व, अवतारवाद आदि विषय भी समीक्षात्मक हुए हैं ।
हुआ है । प्रासंगिक दृष्टि से वहाँ चर्चित
द्वितीय कलिका में ग्रन्थकार ने गुरु के स्वरूप का विवेचन किया है । जैन परम्परा में साधना के सन्दर्भ में गुरू का आशय धर्मगुरु से है । इसमें आचार्य, उपाध्याय तथा निर्ग्रन्थ-साधुओं का समावेश होता है । धार्मिक जीवन में उनका स्थान बहुत ऊँचा होता है । वे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह रूप पाँच महाव्रतों . का मन, वचन, काय द्वारा कृत-कारित अनुमोदित रूप में सम्यक् परिपालन करते हैं | आत्म-सम्मार्जन, आत्म-परिष्कार एवं आत्म-शोधन का पुनीत लक्ष्य लिये वे संयम