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________________ १२२ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका का संचय करने और उनका फल भोगने वाला, स्वदेहपरिमाण, न अणु, न विभु (सर्वव्यापक), किन्तु मध्यम परिमाण का है । बौद्धदर्शन में आत्मा का स्वरूप बौद्ध अपने को अनात्मवादी कहते हैं । वे आत्मा के अस्तित्व को वास्तविक नहीं, काल्पनिक संज्ञा (नाम) मात्र कहते हैं । क्षण-क्षण में उत्पन्न और विनष्ट होने वाले विज्ञान (चेतना) और रूप (भौतिकतत्त्व - काया) के संघात से ही संसार व्यवहार चल सकता है, इनसे परे किसी आत्मतत्त्व को मानने की आवश्यकता नहीं । इसका कारण बुद्ध द्वारा यह बताया जाता है कि यदि मैं कहूँ कि आत्मा है, तो लोग शाश्वतवादी बन जाते हैं और यह कहूँ कि आत्मा नहीं है, तो लोग उच्छेदवादी हो जाते हैं । अतः दोनों का निराकरण करने के लिए मैं मौन रहता हूँ । अव्याकृत कह देता हूँ ।' बुद्ध ने आत्मा क्या है ? कहाँ से आया है ? कहाँ जाएगा ? आदि प्रश्नों को अव्याकृत कहकर टाला है । Starfe आत्मा को नित्य और विभु मानते हैं, तथा इच्छा, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान – ये उसके लिंग हैं, जिनसे हम आत्मा का अस्तित्व जानते हैं । सांख्य आत्मा को कूटस्थ नित्य, निष्क्रिय, अमूर्त्ता, चेतन, भोगी, सर्वव्यापक, अकर्त्ता, निर्गुण और सूक्ष्म मानते हैं । वे आत्मा (पुरुष) को कर्त्ता नहीं, केवल फलभोक्ता मानते हैं । वे कर्तृत्व शक्ति प्रकृति में मानते हैं । वेदान्ती अन्तःकरण से परिवेष्टित चैतन्य को ब्रह्म ( आत्मा ) कहते हैं । उनके मतानुसार स्वभावतः आत्मा एक ही है, वही देहादि उपाधियों के कारण प्रत्येक प्राणी में स्थित है । १ अस्तीति शाश्वतग्राही नास्तीत्युच्छेददर्शनम् । तस्मादस्तित्व नास्तित्वे, नाश्रीयेत विचक्षणः ॥ - माध्यमिक कारिका १८/१० २ न्यायसूत्र सर्वगतोऽक्रियः । ३ अमूर्तश्चेतनो भोगी, नित्यः अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्मः, आत्मा कापिलदर्शने ।। ४ एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ।।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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