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________________ १२० | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका होता, वैसे ही वर्तमान शरीर में रहा हुआ जीव दिखाई देता है, किन्तु उसे छोड़कर दूसरे शरीर में चला जाता है, तब दिखाई नहीं देता । जैसे दूध और पानी, तिल और तेल, कुंसुम और गन्ध - ये एक से प्रतीत होते हैं, वैसे ही संसारी दशा में जीव और शरीर एक-से प्रतीत होते हैं, परन्तु जैसे - पिजड़े से पक्षी, म्यान से तलवार, घड़े से शक्कर अलग है, वैसे ही वास्तव में जीव शरीर से अलग है । शरीर के अनुसार जीव का संकोच और विस्तार होता है । जो जीव आज हाथी के विराट्काय शरीर में होता है, वही कुन्थु के शरीर में भी उत्पन्न हो जाता है । मगर संकोच और विस्तार, इन दोनों अवस्थाओं में जीव की प्रदेशसंख्या समान ही रहती है, न्यूनाधिक नहीं होती । जैसे काल अनादि और अविनाशी है, वैसे जीव भी तीनों कालों में अनादि और अविनाशी है । जैसे आकाश अमूर्त है, फिर भी अवगाह-गुण से जाना जाता है, वैसे ही आत्मा है, और वह विज्ञानगुण से जाना जाता है । ' जैसे आकाश तीनों कालों में अक्षय, अनन्त और अतुल होता है, वैसे ही जीव भी तीनों कालों में अविनाशी और अवस्थित है । जैसे पृथ्वी सभी द्रव्यों का आधार है, वैसे ही जीव भी ज्ञान आदि गुणों का आधार है । जैसे कमल, चन्दन आदि की सुगन्ध का रूप नहीं दीखता, फिर भी वह घ्राण (नाक) के द्वारा ग्रहण होती है, वैसे ही जीव के नहीं दीखने पर भी ज्ञानगुण के द्वारा उसका ग्रहण होता है । भेरी, मृदंग आदि के शब्द सुने जाते हैं, किन्तु उन शब्दों का रूप नहीं दीखता, वैसे ही जीव भी नहीं दीखता, तथापि ज्ञान-गुण द्वारा उसका ग्रहण होता है । जैसे किसी व्यक्ति के शरीर में पिशाच प्रविष्ट हो जाने पर उसकी आकृति और चेष्टाओं द्वारा जान लिया जाता है, कि यह पुरुष पिशाचग्रस्त है, वैसे ही शरीर में रहा हुआ जीव हास्य, नृत्य, सुख-दुःख बोल-चाल आदि विविध, चेष्टाओं द्वारा जाना जाता है । जैसे कर्मकार कार्य करता है और उसका फल भोगता है वैसे ही जीव स्वयं कर्म करता है, और स्वयं उसका फल भोगता है । १ प्रमाणनयतत्त्वालोक, रत्नाकरावतारिका टीका
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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