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________________ ११८ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका बढ़ा तो उन्होंने 'प्रज्ञा', 'प्रज्ञान', या 'विज्ञान' को आत्मा कहा। उनका तर्क यह था कि प्रज्ञा के अभाव में मन और इन्द्रियाँ कुछ भी नहीं कर सकतीं। अतः प्रज्ञा ही महत्त्वपूर्ण है। तैत्तिरीय उपनिषद् में विज्ञानात्मा को मनोमय आत्मा का अन्तरात्मा कहा है। ऐतरेय उपनिषद् में प्रज्ञा, प्रज्ञान और विज्ञान को एकार्थक माना गया है। जब आत्मा को 'विज्ञान' को संज्ञा मिलो, तब आत्मविषयक चिन्तन के क्षेत्र में नई क्रान्ति हुई। कौषीतकी उपनिषद् में कहा गया-इन्द्रियों के विषयों का या मन का ज्ञान आवश्यक नहीं, किन्तु इन्द्रियविषयों के ज्ञाता तथा मनन करने वाले–प्रज्ञात्मा का ज्ञान करना चाहिए।' कठोपनिषद् में उत्तरोत्तर श्रेष्ठ तत्त्वों की गणना करते हुए कहा गया-इन्द्रियों से मन, मन से बुद्धि (महत्तत्व) और महत्तत्त्व से अव्यक्त प्रकृति एवं प्रकृति से पुरुष उत्तरोत्तर उच्च हैं।' ____ आनन्दमय आत्मा-विज्ञानमय आत्मा मानने पर भी आत्मा को किसी चेतन पदार्थ का धर्म न मानकर अचेतन पदार्थ का धर्म माना गया। यद्यपि विज्ञानात्मा तक के चिन्तन से आत्मा पूर्णतः चेतनस्वरूप सिद्ध हो गया था, किन्तु आनन्द की पराकाष्ठा आत्मा में है, इसलिए आनन्दमय आत्मा की कल्पना की गई। चिदात्मा-यद्यपि जैनागम में भी निश्चय दृष्टि से कहा गया कि जो आत्मा है, वह विज्ञान है और जो विज्ञान है, वह आत्मा है। किन्तु विज्ञान के अतिरिक्त आत्मा के अन्य गुणों का भी समावेश करने हेतु जैनदर्शन ने आत्मा को चैतन्यस्वरूप माना। उपनिषद् के विभिन्न ऋषियों ने अन्नमय से लेकर आनन्दमय तक जो चिन्तन प्रस्तुत किया, उसमें आत्मा के विभिन्न आवरणों को ही आत्मा समझा गया। आत्मा के मूलस्वरूप की ओर उनकी दृष्टि नहीं गई। चिन्तन के चरण आगे बढ़े तो ऋषियों ने कहा-'शरीर आत्मा का रथ है उसको चलाने वाला वास्तविक रथी तो आत्मा है।' कुछ उपनिषद्कारों ने आत्मा को प्राण से तथा इन्द्रिय और मन से १ (क) कौषीतकी उपनिषद् ३।६।७ (ख) तैत्तिरीय० २।४ (ग) ऐतेरेय० ३।२, ३।३ (घ) कौषीतकी० ३।८ २ कठोपनिषद् १।३।१०।११ ३ (क) 'आनन्दो ब्रह्मति व्यजानात्-तैत्तिरीय० २।६ (ख) कठोपनिषद् १।३।१०।११
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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