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आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद, क्रियावाद | ११७ अपना कार्य छोड़ देते हैं, तब प्राण श्वासोच्छ्वास चलता रहता है । मृत्यु के बाद श्वासोच्छ्वास नहीं प्रतीत होता । अतः प्राण ही आत्मा है ।
छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया- 'इस विश्व में जो कुछ भी है, प्राण है ।' बृहदारण्यक में 'प्राणों को देवों का देव' कहा गया है ।
शरीर में इन्द्रियों का स्थान प्रमुख होने तथा उनके प्रत्यक्ष होने से कुछ दार्शनिक इन्द्रियों को आत्मा मानते थे । सांख्यदर्शन के टीकाकार वाचस्पति मिश्र ने सांख्यसम्मत वैकृतिकबन्ध के अनुसार इन्द्रियों को पुरुष मानने का उल्लेख किया है। बृहदारण्यक में बताया गया कि मृत्यु के समय सभी इन्द्रियों के थक जाने पर भी प्राण प्रबल रहता है । इन्द्रियाँ प्राण का रूप धारण कर लेती हैं । अतः इन्द्रियों को भी प्राण कहते हैं । '
मनोमय आत्मा – इससे भी आगे बढ़कर कुछ दार्शनिकों ने मन को आत्मा माना । निःसन्देह इन्द्रियों और प्राण को अपेक्षा मन सूक्ष्म है । परन्तु मन
भौतिक है. या अभौतिक ? इस विषय में दार्शनिकों में मतैक्य नहीं रहा । नैयायिक
और वैशेषिक मन को अणुरूप तथा पृथ्वी आदि भूतों से विलक्षण मानते हैं । सांख्यदर्शन मानता है कि भूतों की उत्पत्ति से पूर्व ही प्रकृतिज अहंकार से मन उत्पन्न होता है । बौद्धों ने मन को विज्ञान का समानान्तर कारण माना है। न्यायदर्शनकार ने मन को आत्मा माना है । देह से भिन्न आत्मा मनोमय हो सिद्ध होता है, क्योंकि मन सर्वग्राही है । आत्मा मनोमय ही है ।
तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है - ' अन्योऽन्तरात्मा मनोमय - अर्थात् - आत्मा मनोमय ही है ।' बृहदारण्यक में 'मन को परमब्रह्म सम्राट् ' छान्दोग्योपनिषद् में 'ब्रह्म' तथा तेजोबिन्दु उपनिषद् में मन को ही सम्पूर्ण जगत् का रूप बताया गया है । "
विज्ञानमय प्रज्ञानमय आत्मा - चिन्तकों का चिन्तन जब मन से आगे
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( क ) तैत्तिरीय० २।२३
( ग ) छान्दोग्य ० ३ | १५|४ सांख्यकारिका ४४
(ख) कोषीतकी उपनिषद् ३।२ (घ) बृहदारण्यक० १।५।२१
२ (क) न्यायसूत्र ३।२।६१
(ख) वैशेषिकसूत्र ७।१।२३
( ग ) ' पण्णामनन्तरातीत विज्ञानं यद्धि तन्मनः । - अभिधर्मकोश १।१७
(घ) तैत्तिरीय० २।३
(ङ) बृहदारण्यक० १।५।३
(च) छान्दोग्य ० ७ ३।१
(छ) तेजोबिन्दु उपनिषद् ५। ६८ । १०४