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११६ | जैन तत्त्वकलिका : छटी कलिका
आत्मा के स्वरूप के विषय में दार्शनिकों में पर्याप्त मतभेद हैं। यहाँ उन सबका विस्तृत वर्णन करने और निराकरण करने की आवश्यकता नहीं । यहाँ सिर्फ उसकी झांकी प्रस्तुत करके जैनदर्शनसम्मत आत्मा के स्वरूप का संक्षिप्त प्रतिपादन हो यथेष्ट है।
शरीरमय आत्मा-चार्वाकदर्शन पंचभूतों से चैतन्य की उत्पत्ति मानता था, जिसका उल्लेख औपनिषदिक, जैन एवं बौद्ध साहित्य में आता है। अर्थात्-पंचभूतोत्पन्न चैतन्यमय शरीर ही आत्मा है, जो यहीं समाप्त हो जाता है । दीग्घनिकाय में चार भूतों (धातुओं) से पुरुष (आत्मा) की उत्पत्ति मानने वाले अजितकेशकम्बली का मन्तव्य दिया गया है। जैन-बौद्ध उपनिषद्-साहित्य में तज्जीव-तच्छरीरवाद (जो जीव है, वही शरीर है, आत्मा शरीर से भिन्न नहीं है, इस प्रकार के मत) का भी उल्लेख मिलता है।
जैनागम राजप्रश्नीयसूत्र में तथा बौद्धसाहित्य के दीग्घनिकाय ग्रन्थ के एक विभाग-पायासीसूत्त' में राजा पायासी या पएसी (प्रदेशी) का उल्लेख मिलता है, जो जीव और शरीर को पृथक् नहीं मानता था।' उपनिषदों में आत्मा को अन्नमय कहा है, वह भी शरीर का ही द्योतक है। छान्दोग्य उपनिषद में प्रजापति ब्रह्मा के पास आत्म विषयक जिज्ञासा लेकर वैरोचन और इन्द्र के आगमन का उल्लेख है। प्रजापति ने सम्पूर्ण शरीर को ही आत्मा मानने के मन्तव्य का समर्थन किया।
प्राणमय आत्मा- इन्द्र को इस समाधान से सन्तोष नहीं हुआ, उसके मन में अन्तःस्फूरणा हुई कि निद्रावस्था में इन्द्रियाँ और मन भी अपना
१. (क) सूत्रकृतांग श्रु. १, अ. १, उ. १, सू. ७, (ख) ब्रह्मजालसुत्त (ग) श्वेता
श्वतर उप. १।२, (घ) बृहदारण्यक, २।४।१२, (ङ) विशेषावश्यकभाष्य गा. . १५५३, (च) न्यायमंजरी पृ. ४७२, (छ) दीग्घनिकाय-सामञफलसुत्त (ज) दोच्चे
पुरिसजाए पंचमहन्भूइए त्ति आहिए। -सूत्रकृतांग श्रु. २, अ. १।१६ २ (क) इति पढमे पुरिसजाए तज्जीवतच्छरीरएं त्ति आहिए। -सूत्रकृ. २।१।६
(ख) सूत्रकृतांगनियुक्ति गा. ३० (ग) विशेषावश्यक भाष्य-वायुभूति की शंका
(घ) मज्झिमनिकाय--चूलमालुक्यसुत्तं ३ (क) रायप्पसेणीसुत्तं-प्रदेशीराजा का अधिकार . (ख) दीग्घनिकाय-पायासीसुत्तं ४ (क) तैत्तिरीय उपनिषद् २।१।२ (च) छांदोग्योपनिषद् ६६