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११२ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका वादी भी रहे हैं, किन्तु उनको संख्या नगण्य रही है। फिर भी उन्होंने आत्मा के विरोध में अपने तर्क प्रस्तुत किये हैं। आत्मवादियों द्वारा दिये गये उनके विपक्ष में आत्मा के साधक प्रमाण इतने अकाट्य हैं कि अनात्मवादियों को उनके आगे निरुत्तर होना पड़ता है। आत्मा के विषय में साधक तकों का वर्गीकरण इस प्रकार है
(१) स्वसंवेदन-रूपी पदार्थों की तरह, अरूपी आत्मा प्रत्यक्ष नहीं दीखता, किन्तु स्वानुभवप्रमाण से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। मैं हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, ऐसा अनुभव (संवेदन) शरीर को नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर पंचभूतों से बना हुआ जड़ पदार्थ है। यदि शरीर को ही आत्मा मान लिया जाए या पंचभूतों से चैतन्योत्पत्ति मानी जाए जैसा कि तज्जीवतच्छरीरवादी या भूतचैतन्यवादी कहते हैं, तब तो मृत शरीर को भी सजीव
और ज्ञान (चेतना) के प्रकाश वाला मानना पड़ेगा, परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि इच्छा, अनुभूति आदि गुण मृतक शरीर में नहीं होते।'
(२) उपादान कारण-इस युक्ति के अनुसार यह सिद्ध होता है कि चैतन्य, इच्छा, अनुभूति आदि गुणों का उपादान शरीर नहीं, किन्तु कोई दूसरा ही तत्त्व है, और वह आत्मा ही है। जिस वस्तु का जैसा उपादान कारण होता है, वह वस्तु उसी रूप में परिणत होती है। अचेतन के उपादान चेतन में नहीं बदल सकते । शरीर पृथ्वी आदि भूतसमूहों का बना हआ होने से जड़-अचेतन है । जैसे घट, पट आदि जड़ पदार्थों में ज्ञान, इच्छा आदि गुणों का अस्तित्व नहीं है, वैसे ही जड़ शरीर भी ज्ञान, इच्छा आदि गुणों का उपादान रूप आधार नहीं हो सकता।
(३) अत्यन्ताभाव-शास्त्रकार के शब्दों में न कभी ऐसा हआ है, न हो रहा है और नं होगा, कि जीव अजीव बन जाए अथवा अजीव जीव बन जाए। चेतन और अचेतन दोनों में परस्पर एक दूसरे का अत्यन्ताभाव है।
(४) ज्ञेय और ज्ञाता का भिन्नत्व-ज्ञय, इन्द्रिय और आत्मा, ये तीनों पृथक-पृथक् हैं । आत्मा ग्राहक है, इन्द्रियाँ ग्रहण करने के साधन हैं और पदार्थ ग्राह्य (ज्ञ य) हैं। जैसे-लोहार संडासी से लोहपिण्ड को पकड़ता है। इसमें लोहपिण्ड ग्राह्य है, संडासो ग्रहण करने का साधन है और लोहार १ देखिये-सूत्रकृतांग श्रु. १, अ. १, उ. ११७-८ में भूतचैतन्यवाद एवं तज्जीव
तच्छरीरवाद का उल्लेख ।
बृहदारण्यक उपनिषद् २।४।१२ में भी भूत चैतन्यवाद का उल्लेख करते हुए कहा - है-'न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति ।