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________________ आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद, क्रियावाद | १११ साधक-बाधक प्रमाणों को देखना आवश्यक होता है । जो वस्तु प्रत्यक्ष है, उसके विषय में किसी को सन्देह नहीं होता । परोक्ष वस्तु के विषय में साधारण आदमी का ज्ञान, जो भी पढ़-सुनकर होता है, वह साधक-बाधक तर्कों की कसौटी पर कसा हुआ होता है । यदि साधक प्रमाण प्रबल होते हैं, तो वह परोक्ष वस्तु के अस्तित्व को स्वीकार कर लेता है, और बाधक प्रमाण बलवान हों तो वह उसके अस्तित्व से इन्कार कर देता है । परोक्ष होने पर भी आत्मा का अस्तित्व है। आत्मा प्रत्यक्ष होता तो किसी को शंका करने का अवकाश न रहता, किन्तु वह परोक्ष है, अतीन्द्रिय है, अमूर्त है । इन्द्रियाँ सिर्फ स्पर्श-रस-गन्धरूपात्मक मूर्त पदार्थ को ही जान सकती हैं। मन इन्द्रियों का अनुगामी है । वह इन्द्रियों द्वारा जाने हुए पदार्थों के विशेष रूपों को जानता है व उनके विषय में चिन्तन-मनन करता है । मूर्त के माध्यम से वह अमृत वस्तुओं को भी जानता है । आत्मा शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से रहित है वह अमूर्त है, अरूपी सत्ता है ।' अमृत होने के कारण वह इन्द्रियों और मन के द्वारा न जाना जाए इससे उसके अस्तित्व पर कोई आँच नहीं आती । इन्द्रियों द्वारा अरूपी आकाश को कब कौन जान सका है ? फिर भी आकाश का अस्तित्व माना जाता है । अरूपी की बात जाने दें, अणु या आणविक सूक्ष्म पदार्थ, जोरूपी हैं, वे भी इन्द्रियों से नहीं जाने जा सकते, फिर भी उनके अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता । एकमात्र इन्द्रियप्रत्यक्ष को मानने से संसार का कोई व्यवहार नहीं चल सकता | इन्द्रियप्रत्यक्षवादी ने अपने पूर्वजों को नहीं देखा, इस कारण वह उनके अस्तित्व से कैसे इन्कार कर सकता है ? यही क्यों, दीवार के पीछे, या सूक्ष्म, अतिदूर ( विप्रकृष्ट) और व्यवहित वस्तु को इन्द्रियाँ नहीं देखसुन सकतीं फिर भी उसे मानना पड़ता है । आत्मा के अस्तित्व में साधक तर्क आत्मा प्रत्यक्ष न होने पर भी, भारतीय दर्शनों में आत्मा पर बहुत अधिक मनन-चिन्तन हुआ है । यदि यह कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी कि आत्मवाद भारतीय दर्शन का प्रधान और महत्वपूर्ण अंग है । यहाँ अनात्म १ आचारांगसूत्र, श्रु. १. अ. ५, उ. ६, सू. ५६३-५६६ २ "नो इं दियगेज्झ अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो ।” - उत्तरा० अ. १४ गा. १६
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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