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११० | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका
अक्रियावादी वर्ग ने इसके विपरीत प्ररूपणा की-सुकृत और दुष्कृत का फल नहीं होता, न ही शुभकर्मों के शुभ और अशुभकर्मों के अशुभ फल होते हैं । आत्मा परलोक में जाकर उत्पन्न ही नहीं होता।'
फलतः लोगों में भोगवाद की प्रबल इच्छा उठी, वे महारम्भ, महापरिग्रह में ग्रस्त रहने लगे। क्रियावाद का अन्तिम लक्ष्य भौतिक सुखोपभोग ही रहा । वह दुष्कर्मफल की चिन्ता छोड़कर स-स्थावर जीवों की बेखटके निरर्थक हिंसा करने लगा। अन्य पापकर्म भी निःसंकोच करने लगा।
___अनुभव बताता है कि प्राणघातक रोग, विपत्ति या मृत्यु के समय बड़े-बड़े नास्तिक काँपने लगते हैं। कभी-कभी वे नास्तिकता को तिलांजलि देकर आस्तिक भी बन जाते हैं । प्रायः अक्रियावादी लोगों को अन्तिम समय में यह संशय होने लगता है कि मैंने कई बार सुना है कि नरक है, जहाँ पापकर्मी, करकर्मी, दुराचारी एवं अत्याचारी लोगों को उनके किये हए दुष्कर्मों के फलस्वरूप नरक में प्रगाढ़ वेदना सहनी पड़ती है। कहीं यह सच तो नहीं है ? सचमुच यह सत्य हो तो मेरी बहुत दुर्दशा होगी।
__ इस प्रकार क्रियावादी जहाँ आत्मवाद, कर्मवाद और लोकवाद की पृष्ठभूमि पर अपना जीवन सुधारता है, शुभ कार्य करता है, धर्माचरण भी करता है, वहाँ अक्रियावादी आत्मा, परलोक और कर्मवाद से विमुख होकर , अपना जीवन बिगाड़ता है, पापकर्म करता है।
इन दोनों विचारधाराओं का परिणाम हमारे सामने है। इनसे केवल दार्शनिक दृष्टिकोण ही नहीं बनता, अपितु व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक राष्ट्रीय एवं धार्मिक जीवन पर भी इन विचारधाराओं का अनुकूल-प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। समग्र जीवन के शुभाशुभ निर्माण में इन दोनों विचारधाराओं का बहुत बड़ा हाथ रहा है।
अब हम आस्तिक्य के लिए अनिवार्य क्रियावाद के मूलस्रोत-आत्मवाद, लोकवाद और कर्मवाद पर क्रमशः विचार करते हैं।
आत्मवाद : एक समीक्षा किसी भी अतीन्द्रिय वस्तु के अस्तित्व के विषय में निर्णय करते समय
१ णो सुच्चिण्णा कम्मा सुच्चिण्णा फला भवति ।
णो दुच्चिण्णा कम्मा दुच्चिण्णा फला भवंति ।
अफले कल्लाणपावए णो पच्चायति जीवा ।।-दशाश्रुतस्कन्ध ६६ से उद्धृत २ 'कूराणि कम्माणि . बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेणमुढे विप्परियासमुवेइ मोहेण
गब्भं मरणाति एति ।' –आचारांग श्रु. १ अ. ५, उ. १ सू. ४८६-४८७