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आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद, क्रियावाद | १०७
आत्मवाद सम्बन्धी विचार
अतः क्रियावाद का निरूपण यह रहा कि आत्मा के अस्तित्व में सन्देह मत करो | वह अमूत है, इसलिए इन्द्रियगाह्य नहीं है । वह नित्य है; किन्तु स्वकृत मिथ्यात्व अज्ञान, रागद्वेषादि दोषों के कारण हुए कर्मबन्ध के फलस्वरूप नाना गतियों एवं योनियों में परिभ्रमण करता है । अतः मनुष्य, तिच आदि नाना पर्यायों में परिणत होने के कारण वह अनित्य भी है ।
इसके विपरीत अक्रियावादियों का कथन है कि इस जगत् में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश, ये पाँच महाभूत ही तत्त्व हैं। इनके समुदाय से चैतन्य या आत्मा पैदा होता है । भूतों का नाश होने पर उसका भी नाश हो जाता है | अतः आत्मा नाम का कोई स्वतन्त्र पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं है जो प्रत्यक्ष नहीं, उसे कैसे माना जा सकता है, आत्मा इन्द्रियों और मन से प्रत्यक्ष नहीं है, फिर हम उसे क्यों कर मानें ? अतः जिस प्रकार अरणि की लकड़ी से अग्नि, तिलों से तेल और दूध से घृत उत्पन्न होता है, वैसे ही पंचभूतात्मक शरीर से जीव (चैतन्य) उत्पन्न होता है, शरीर नष्ट होने पर आत्मा जैसी कोई वस्तु नहीं रहती ।
लोकवाद विषयक विचार
क्रियावादी आत्मवाद के साथ-साथ लोकवाद को मानते हुए कहते हैं- "अनन्तकाल तक विविध गतियों और योनियों में परिभ्रमण करने के बाद मनुष्य जन्म मिला है।" यदि इस जीवन को व्यर्थ गँवा दोगे तो फिर दीर्घकाल के पश्चात् भी मनुष्यजन्म मिलना सुलभ नहीं है । कर्मों के विपाक अत्यन्त दारुण दुःखदायक होते हैं । अतः समझो, इसे क्यों नहीं समझते हो ? ऐसा सद्बोध- सुविवेक बार-बार नहीं मिलता। जो रात्रियाँ बीत गई हैं, वे पुनः लौट कर नहीं आतीं और न मानव-जीवन फिर से मिलना सुलभ है । अतः जब तक वृद्धावस्था न सताए, रोग घेरा न डाले
१ (क) पृथिव्यादिभूत संहत्यां यथा देहादिसम्भवः । मदशक्तिः सुरांगेभ्यो, यत्तदवच्चिदात्मनि ॥
- पड्दर्शनसमुच्चय, श्लो० ८४ शरीर विषयेन्द्रिय संज्ञाः - तत्त्वोपप्लव शां० भाष्य
(ख) पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि, तत्समुदाये तेभ्यश्चैतन्यम् ।
२ कम्माणं तु पहाणार आणुपुव्वी कयाइ उ । जीवा सोहिमणुपत्ता, आययंति मणुस्सयं ॥ खलु पेच्च दुल्लहा । णो हूवणमंति राइओ, णो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥
३ संवुज्झह, किं न बुज्झह ! संबोही
- उत्तरा, अ. ३. गा. ७
—सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. २, उ. १, सू. ८६