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१०६ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका
_ 'से आयावाई, लोगावाई, कम्मावाई, किरियावाई ।
अर्थात्-जो (आस्तिक) आत्मवादी होगा, वह लोकवादी अवश्य होगा, और जो लोकवादी होगा, वह कर्मवादी होगा और जो कर्मवादी होगा, वह क्रियावादो अवश्य होगा। चारों वाद परस्पर सम्बद्ध
निष्कर्ष यह है कि आस्तिक्य का महल चार सुदृढ़ स्तम्भों पर खड़ा है-(१) आत्मवाद, (२) लोकवाद, (३) कर्मवाद और (४) क्रियावाद । ये चारों वाद एक दूसरे से शृखला की तरह जुड़े हुए हैं। जिसमें आस्तिक्य होगा, उसमें ये चारों वाद अवश्य होंगे।
इन चारों वादों के यथार्थ स्वरूप के विषय में सर्वज्ञ वीतरागजिनेश्वरदेव ने जिस प्रकार कहा है, उसी प्रकार से उनके अस्तित्व एवं स्वरूप के विषय में आस्था रखना ही आस्तिक्य है।
इन चारों वादों के अस्तित्व एवं यथार्थस्वरूप से इन्कार करने वाले या विपरीत रूप में मानने वाले नास्तिक हैं। आस्तिक्य के साथ ये चारों वाद परस्पर कैसे और किस प्रकार जुड़े हुए हैं, इस पर विचार करना आवश्यक है । आत्मवाद आस्तिक्य वृक्ष का मूल है, जबकि लोकवाद, कर्मवाद । और क्रियावाद है क्रमशः-स्कन्ध, शाखा और फल।
क्रियावाद-अक्रियावाद सर्वप्रथम क्रियावाद से प्रारम्भ करना उचित होगा; क्योंकि जो क्रियावादी होगा, वह पूर्व-पूर्व वादों के प्रति अवश्य ही आस्थाशील होगा।
इस विश्व के प्रमुख दार्शनिकों में दो प्रकार के विचार-प्रवाह प्रचलित हुए-क्रियावाद और अक्रियावाद । आत्म-परमात्मा, परलोक (स्वर्ग-नरक), कर्म (पुण्य-पाप) एवं मोक्ष पर विश्वास करने वाले क्रियावादी और इन पर विश्वास नहीं करने वाले 'अक्रियावादी' कहलाए।।
क्रियावादी कहते हैं-आत्मा है, वह ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य से सम्पन्न है । वह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है, अनुमान और आगम से भी सिद्ध है, योगी-प्रत्यक्ष तो है ही। वह परिणामोनित्य है, अपने कर्मों का कर्ता है, उनके फल का भोक्ता है, वह मुक्ति प्राप्त कर सकता है, और मुक्ति का उपाय या मार्ग भी है।
१ आचारांग, प्रथम श्रुतस्कन्ध, अ. १, सू. ५