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सम्यग्दर्शन के सन्दर्भ में
छठी कलिका
आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद, क्रियावाद
श्रतधर्म के परिप्रेक्ष्य में जब हम 'सम्यग्दर्शन' का विचार करते हैं तो उसके लक्षण से एक बात स्पष्ट हो जाती है किं तत्त्वभूत जिनोक्त पदार्थों या देव-गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा होना अनिवार्य है । किन्तु इतने भर से ही सम्यग्दर्शन परिपुष्ट, सुदृढ़ और परिपक्व नहीं हो जाता। उसके लिए सम्यग्दर्शन के शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये जो पाँच लक्षण बताए हैं, उनमें से अन्तिम लक्षण - आस्तिक्य का होना अनिवार्य है । आस्तिकता के बिना तत्त्वभूत पदार्थों के प्रति या देव- गुरु-धर्म के प्रति कोरी श्रद्धा आगे चलकर गड़बड़ा सकती है । इसलिए सम्यग्दर्शन की नींव मजबूत बनाने हेतु आस्तिक्य का होना आवश्यक है तभी श्रुतधर्म सम्यक् रूप से जीवन में क्रियान्वित हो सकता है । अतः इस कलिका में हम आस्तिक्य के सम्बन्ध में जैन दर्शन की दृष्टि से विस्तृत चर्चा करेंगे ।
यदि आस्तिक्य का अर्थ केवल जिनोक्त तत्त्व के प्रति या देव-गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा आस्था रखना इतना ही किया जाये तो सम्यग्दर्शन और आस्तिक्य में कोई अन्तर नहीं रह जाता । अतः आस्तिक्य का अर्थ कुछ और होना चाहिए ।
पाणिनीय व्याकरण के अनुसार आस्तिक और नास्तिक का निर्वचन इस प्रकार है
अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः
इसका स्पष्टार्थ – आत्मा-परमात्मा, पुनर्जन्म, परलोक, पुण्य-पापकर्म एवं मोक्ष आदि का अस्तित्व है, ऐसी जिसकी बुद्धि है, वह आस्तिक है, और इन विषयों में जिसकी नास्तित्वबुद्धि है, वह नास्तिक है ।
इस दृष्टि से आस्तिक के भाव - विचार को आस्तिक्य कहा जा सकता है | अतः आस्तिक्य का स्पष्टार्थ हुआ - आत्मा आदि परोक्ष, किन्तु आगमप्रमाण सिद्ध पदार्थों का स्वीकार करना ।
आचारांग सूत्र में आस्तिक के जीवन प्रासाद को चार सुदृढ़ स्तम्भों पर खड़ा बताया गया है । वह सूत्र इस प्रकार है
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