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१०४ | जैन तत्त्वकलिका : पंचम कलिका
(५) उपबृहण-जो श्रुतधर्म-चारित्रधर्म पर दृढ़तापूर्वक चल रहे हैं, उन्हें प्रोत्साहन देना, धर्म की अवहेलना हो रही हो तो दूर करना, जिनप्रणीत तत्त्वों को लोगों के गले उतारना उपबहण है। यह गुण भी सम्यक्त्व और श्रुतधर्म के प्रसार-प्रचार के लिए आवश्यक है।
(६) स्थिरीकरण- कोई व्यक्ति श्रुत-चारित्रधर्म से किसी कारणवश भ्रष्ट या च्युत हो रहा है या भय या प्रलोभन के कारण धर्म से फिसल रहा हो तो उसे धर्म पर दृढ़ करना, प्रलोभन से बचाना, यथायोग्य सहायता देना भी श्रुतधर्म की वृद्धि करना है।
(७) वात्सल्य-जगत् के जीवों, विशेषतः सार्मिकों के प्रति वात्सल्यभाव रखना, अहर्निश बन्धुभाव में वृद्धि करना, समय-समय पर उनसे धर्म, तत्त्व या सिद्धान्तों के विषय में आत्मीयतापूर्वक चर्चा-विचारणा करना भी श्रुतधर्म के विकास के लिए आवश्यक है।
(८) प्रभावना-प्रत्येक समुचित उपाय द्वारा धर्म का उद्धार, प्रचारप्रसार करना, प्रभाव बढ़ाना प्रभावना है । जो श्रुतधर्म को पल्लवित-पुष्पित करने के लिए आवश्यक है।
इस प्रकार सम्यक्त्व के रूप में श्रतधर्म को जीवन में चरितार्थ करने से आध्यात्मिक विकास एवं आत्मविशुद्धि हो सकती है।